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तृतीय खण्ड। [२५१ भावार्थ-इस गाथामें शुभोपयोगमें प्रवर्तनेवाले साधुओंके कार्यके कुछ लक्षण वताए हैं। पांच परमेष्ठियोंको वंदना व नमस्कार करना, दूसरे साधुओंको आते देखकर उनकी विनय करनेके लिये उठके खड़ा होना, उनको नमस्कार करना, योग्य आसन देना. कोई साधु गमन करते हों और आप उनसे कम पदबीका हो तो उनके पीछे २ चलना, तथा यदि साधुओंको ध्यान स्वाध्याय मार्गगमन आदि कार्योसे शरीरमें थकन चढ़ गई हो तो उनके शरीरकी वेय्यावृत्य करके उसको दूर करना, जिससे वे ध्यान व समाधिमें अच्छी तरह उत्साहवान हो जावें। इत्यादि, जो जो रागरूप किया अपने और दूसरोंके शुद्धोपयोगकी वृद्धि के लिये की जावे वह सब शुभ प्रवृत्ति साधुओंके लिये मना नहीं है । अपवाद मार्गके अवलम्बनके विना उत्सर्ग मार्ग नहीं पल सक्ता है, इस वातको पहले दिखा चुके हैं क्योंकि उपयोगमें थिरता बहुत कम है । सराग चारित्रका पालन अपवाद मार्ग है। शुद्धोपयोगमें उपयोग अधिक कालतक ठहर नहीं सक्ता है इसी लिये अशुभोपयोगसे बचनेके लिये साधुओंको शुभोपयोगमें प्रवर्तना चाहिये।
साधुके आवश्यक नित्य कर्तव्योंमें प्रतिक्रमण, वन्दना, नमस्कार, स्वाध्याय आदि सब शुभोपयोगके नमूने हैं । इन शुभ क्रियाओं के मध्यमें उसी तरह साधुओंको शुद्धोपयोग परिणतिका लाभ होजाता है जिस तरह दूधको मथन करते हुए मध्य मध्यमें मक्खनका लाम होनाता है । प्रमत्त गुणस्थानमें वैयावृत्य आदि शुभ क्रियाएँ करना साधुका तप है । व्यवहार तपका साधन सब शुभोपयोग रूप है।