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तृतीय खण्ड ।
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भावार्थ यह है - जो जीव द्रव्यको क्षणिक मानते उनके मतमें मोक्ष नहीं सिद्ध होती अथवा जो जीव द्रव्यको पर्याय रहित कूटस्थ नित्य मान लेते हैं उनके मत में भी संसारावस्थासे मोक्षावस्था नहीं बन सक्ती परन्तु जो द्रव्य पर्यायरूप अथवा नित्यानित्यरूप जीवको मानते हैं वहीं आत्मा की अवस्थाएं होती हैं। ऐसा जीव द्रव्यको मानते हुए जब इस जीवके " अपना शुद्धात्मा ही ग्रहण करने योग्य है" ऐसी रुचि पैदा होजाती है, तबसे उसमें अंतरात्मावस्था पैदा हो जाती है । यही अवस्था मोक्षका हेतु है । इसी कारण रूप भावका ध्यान करते करते यह आत्मा गुणस्थानोंकी परिपाटीके क्रमसे अरहंत' परमात्मा होकर फिर गुणस्थानोंसे बाहर परमात्मा होजाता है ॥५७॥
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि परमागम ज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान तथा संयमीपना इन भेदरूप रत्नत्रयोंके मिलाप होनेपर भी जो अभेद रत्नत्रय स्वरूप निर्विकल्प समाधिमई आत्मज्ञान है वहीं निश्चयसे मोक्षका कारण है:
जं अण्णाणी कम्मं खवेइ भवसयसहस्सकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेइ उस्सासमेत्तेण ॥ ५८ ॥ दानी कर्म्म क्षपयति भवशतसहस्रकोटिभिः । तज्ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेण ॥ ५८ ॥
अन्त्रय सहित सामान्यार्थ - ( अण्णाणी) अज्ञानी (जं कम्मं) जिस कर्मको ( भवसयसहस्सकोडीहिं ) . एकलाखको भवों में (खवेइ) नाश करता है । (तं) उस कर्मको (णाणी) आत्मज्ञानी (तिहिंगुत्तो) मन वचन काय तीनोंकी गुप्ति सहित होकर ( उस्सासमेतेण ) एक उच्छ्वास मात्रमें (खवेइ) क्षय कर देता है ।
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