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२१२] श्रीप्रवचनसारटोका । प्राप्त करे । तब सम्यग्दर्शनके होनेपर ज्ञानका नाम भी सम्यग्ज्ञान हो जाता है । श्रद्धान और ज्ञान हो जानेपर भी इस जीवको संतोष न मान लेना चाहिये कि अब हमने अपने आत्माको " परका कर्ता व भोक्ता नहीं है " ऐसा निश्चय कर लिया हैहमको अब कर्म बंध नहीं होगा इसलिये हमको संयम पालनेकी कोई जरूरत नहीं है । उसके लिये आचार्य कहते हैं कि जब श्रद्धान ज्ञान होजावे तब उसकी वीतरागता बढ़ाने तथा कषायोंको नाश करनेके लिये अवश्य चारित्र पालना चाहिये। जहां श्रद्धान ज्ञान सहित चारित्र होता है वहीं यथार्थ धर्म-ध्यान शुक्लध्यान होता है, जिनके प्रतापसे यह आत्मा सर्व कर्मोको जलाकर एक दिन बिलकुल मुक्त होजाता है । इसलिये रत्नत्रय ही मोक्ष मार्ग है ऐसा निश्चय रखना चाहिये ।
अनगार धर्मामृतमें पं० आशाधरजी कहते हैंश्रद्धानबोधानुष्ठानस्तत्त्व मिष्ठार्थसिद्धिकृत् । समस्तैरेव न व्यस्तै रसायनमिवौषधम् ॥६४॥ प्र० अ०
भावार्थ-रसायनरूप औषधिका श्रद्धान व ज्ञान होनेपर जब वह सेवन की जायगी तब ही उससें फल होसकेगा। इसी तरह जब आत्मतत्वका श्रद्धान, ज्ञान होकर उसका ,साधन किया जायगा तब ही इष्ट पदार्थकी सिद्धि होसकेगी । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र तीनों मिल करके ही मोक्षमार्ग होसक्के हैं अलग अलग नहीं । और भी कहा है-- .
श्रद्धानगन्धसिन्धुरमदुष्टमुद्यद्वगममहामात्रम् । धोरोव्रतवलपरिव्रतमारूढोऽरीन् जयेत्प्रणिधिहेत्या ॥५॥