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२८४] श्रीप्रवचनसारटीका। जो द्रव्यमान बाहरमें त्यागी है उसको उत्तम गति नहीं हो सक्ती है। इस कारणसे इंद्रियोंके विषयोंके रमणमें लोलुपी मनरूपी हाथीको अपने वशमें रखना चाहिये ।
सामायिकपाठमें श्री अमितगति महाराज कहते हैंयो जागर्ति शरोरकार्यकरणे वृत्ती विधत्ते यतो हेयादेयविचारमान्यहृदये नात्मक्रियायामसौ। स्वार्थं लन्धुमना विमुंचतु ततः शश्वच्छरीरादरं कार्यख्य प्रतिबंधके न यतते निष्पत्तिकामः सुधीः ॥७२॥
भावार्थ-जो कोई वर्तन करनेवाला शरीरके कार्यके करनेमें जागता है वह हेय उपादेयके विचारसे शून्य हृदय होकर आत्माके प्रयोजनको सिद्ध करना चाहता है, उसको शरीरका आदर छोडना चाहिये क्योंकि कार्यको पूर्ण करनेवाले बुद्धिवान कार्यके विघ्न करनेवालेका यत्न नहीं करते अर्थात् विघ्नकारकको दूर रखते हैं।
जो यथार्थ आत्मरसिक हैं और शारीरादिसे वैरागी हैं वे ही मुनिपदकी चर्या पाल सक्ते हैं ॥५०॥ ____ उत्थानिका-आगे आचार्य कहते हैं कि अपवादकी अपेक्षा विना उत्सर्ग तथा उत्सर्गकी अपेक्षा विना अपवाद निषेधने योग्य है । तथा इस बातको व्यतिरेक्त द्वारसे बढ़ करते हैं।.
आहारे व विहारे देस कालं समं खमं उवधि। जाणिता ते समगो वदि जदि अप्पलेवी सो ॥५१॥
आहार व विहारे देश कालं श्रमं क्षमामुपधिम् । ज्ञात्वा तान् श्रमणो वर्तते यद्यल्पलेपी सः॥५१॥