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तृतीय खण्ड।
[ १७१ उत्थानिका--आगे योग्य आहारका स्वरूप और भी विस्तारसे कहते हैंएक्झ खलु त भत्तं अप्पडिपुण्योदरं गधा लद्धं । चरणं भिक्खेण दिया ण रसाबेक्वं ण.मधुमंसं ॥ ४६ ॥ एकः खलु स भक्तः अप्रतिपूर्णोदरो यथालब्धः । भैक्षाचरणेन दिवा न रसापेक्षो न मधुमांसः ॥ ४६
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(खलु) वास्तवमें (तं भत्तं एक) उस भोजनको एक ही बार (अप्पडिपुण्णोदरं) पूर्ण पेट न भरके उनोदर (जधा लई) जैसा मिलगया वैसा (भिक्खेण चरण) भिक्षा द्वारा प्राप्त (रसावेक्ख ण) रसोंकी इच्छा न करके (मधुमंस ण) मधु व मांस जिसमें न हो वह लेना सो योग्य आहार होता है।
विशेषार्थ-साधु महाराज दिन रातमें एककाल ही भोजन लेते हैं वही उनका योग्य आहार है इसीसे ही विकल्प रहित समाधिमें सहकारी कारणरूप शरीरकी स्थिति रहनी संभव है। एकबार भी वे यथाशक्ति भूखसे बहुत कम लेते हैं, जो भिक्षाद्वारा जाते हुए जो कुछ गृहस्थ द्वारा उसकी इच्छासे मिल गया उसे दिनमें लेते हैं, रात्रिमें कभी नहीं । भोजन सरस है या रसरहित है। ऐसा विकल्प न करके समभाव रखते हुए मधु मांस रहित व उपलक्षणसे आचार शास्त्रमें कही हुई पिंड शुद्धिके क्रमसे समस्त अयोग्य आहारको वर्जन करते हुए लेते हैं । इससे यह बात कही गई कि इन गुणों करके सहित जो आहार है वही तपस्वियोंका योग्य आहार है, क्योंकि योग्य आहार लेनेसे ही दो प्रकार हिंसाका त्याग होसक्ता है । चिदानंद एक लक्षण रूप निश्चय प्राणमें रागादि विकल्पोंकी