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तृतीय खण्ड।
[१६६ इस कर्म शरीरको-जिसमें आत्मा कैद है और मुक्तिधामको नहीं जासत्ता-निरन्तर जलानेकी फिक्रमें हैं, इसलिये वे धीरवीर इस कर्म निमित्तसे प्राप्त स्थूल शरीरमें किस तरह मोह कर सक्के हैं । जो वस्त्राभूषणादि यहां ग्रहण कर लिये थे उनका तो त्याग ही कर दिया क्योंकि वे हटाए जा सके थे, परन्तु शरीरका त्यागना अपने संयम पालनेसे वंचित हो जाना है। यह विचार करके कि यह शरीर यद्यपि त्यागने योग्य है तथापि जबतक मुक्ति न पहुंचे धर्मध्यान शुक्लध्यान करनेके लिये यही आधार है । इस शरीरसे ममता न करते हुए इसकी उसी तरह रक्षा करते हैं जिस तरह किसी सेवकको काम लेनेके लिये रखा जावे और उसकी रक्षा की जावे, अतएव आहार विहारमें उसको लगाकर शरीरको स्वास्थ्ययुक्त रखते हैं कि यह शरीर तप करानेमें आलसी न हो जावे। अपनी शक्ति जहां तक होती है वहां तक शक्तिको लगाकर व किसी तरह शक्तिको न छिपाकर वे साधु महात्मा बारह प्रकार तपका साधन करते हुए कर्मफी निर्जरा करते हैं। उन साधुओंको जरा भी यह ममत्व नहीं है कि इस शरीरसे इंद्रियोंके भोग करूं व इसे बलिष्ट बनाऊं-शास्त्रोक्त विधानसे ही वे आहार विहार करते हुए शरीरकी स्थिति रखते हुए परम तपका साधन करते हैं, इसलिये वे श्रमण भोजन करते हुए भी नहीं करनेवाले हैं । उनकी दशा उस शोकाकुलके समान है जो किसीके वियोगका ध्यान कर रहे हों, जिनकी रुचि भोजनके स्वादसे हट गई हो फिर भी शरीर न छूट जाय इसलिये कुछ भोजन कर लेते हों । साधुगण निरंतर आत्मानंदमें मग्न रहते