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१५४ ] श्रीप्रवचनसारटोका
. सप्ततिका नामा छठा कर्म ग्रन्थ पत्र ५९१ में लिखा है कि स्त्रीको चौदहवां पूर्व पढ़नेका निषेध है-सूत्रमें कहा है:
तुच्छागारववहुला- चलिंदिआ दुव्वला अधीइए। इय अवसेसन्जयणा भू अऊडा अनोच्छीणं ॥१॥
भावार्थ-भूतवाद अर्थात् दृष्टिबाद नामका बारहवां अंग स्त्रीको नहीं पढ़ना चाहिये क्योंकि स्त्री जाति स्वभावसे तुच्छ ( हलकी ) होती है, गर्व अधिक करती है, विद्या झेल नहीं सक्ती, इंद्रियोंकी चंचलता स्त्रियोंमें विशेष होती है स्त्रीकी बुद्धि दुर्बल होती है।
प्रवचनसारोद्धार-प्रकरण रत्नाकर भाग तीसरा (छपा सं० १९६४ भीमसेन माणकनी बम्बई) पन्ने ५४४-४५ में है कि स्त्रियोंको नीचे लिखी बातें नहीं होसक्ती हैं
अरहंत चकि केसव वल संमिन्नेय चारणे पुव्वा । गणहर पुलाय आहारगं च न हु भवियं महिलाणं ॥५४०॥
भावार्थ-अरहंत, चकी, नारायण, बलदेव, संभिन्नश्रोत, विद्याचारणादि, पूर्वका ज्ञान, गणधर, पुलाकपना, आहारक शरीरये दश लब्धिये भव्य स्त्रीके नहीं होती हैं। (यहां अरहंतसे तीर्थकरपनेका प्रयोजन है ऐसा मालूम पड़ता है। सम्पादक ) तथा जो श्री मल्लिनाथ को स्त्रीपनेमें तीर्थकरपना प्राप्त हुआ सो इसकाले अछेहरा जानना अर्थात् यह एक विशेष बात हुई । प्रकरण रत्नाकर ४ था भागके षडशीति नामा चतुर्थ कर्मग्रंथ पत्र ३९८-'
चौथे गुणस्थानमें स्त्रीवेदके उदय होते हुए औदारिक मिश्र - विक्रियिक मिश्न, कार्मण ये तीन योग प्रायः नहीं होते हैं।