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तृतीय खण्ड। - [१३५ भावार्थ-साधुको इतनी शुद्धियां पालनी चाहिये । (१) लिंग शुद्धि-निग्रन्थ सर्व संस्कारसे रहित वस्त्ररहित शरीर हो, लोच किये हों, पीछी कमंडल सहित हों। (२) व्रतशुद्धि-अतीचार रहित
अहिंसादि पांच व्रतोंको पालते हों। (३) वसतिशुद्धि-स्त्री पशु नपुंसक रहित स्थानमें ठहरें नहां परम वैराग्य हो सके । (१) विहारशुद्धि-चारित्रके निर्मल करनेके लिये योग्य देशोंमें विहार करते हों । (५) भिक्षाशुद्धि भोजन दोपरहित ग्रहण करते हों। (६) ज्ञानशुन्द्रि-शास्त्रज्ञान व पदार्थज्ञान व आत्मज्ञानमें संशयरहित परिपक्व हों। (७) उज्झनशुद्धि-शरीरादिसे ममताके त्यागमें दृढ़ हों। (८) वाक्यशुद्धि-विकथारहित शास्त्रोक्त मृदु व हितकारी वचन बोलते हों। (९) तपशुद्धि-बारह प्रकार तपको मन लगाकर ' पालते हों । (१०) ध्यानशुद्धि-ध्यानके भले प्रकार अभ्यासी हों।
इन शुद्धियोंमें विघ्न न पड़के सहायकारी नोउपकरण हों उन्हींको अपवाद मार्गी साधु ग्रहण करेगा। वस्त्र व भोजनपात्रादि नहीं ॥२८॥
उत्थानिका-आगे फिर आचार्य यही कहते हैं कि सर्व परिग्रहका त्याग ही श्रेष्ठ है । जो कुछ उपकरण रखना है वह अशक्यानुष्ठान है-अपवाद है-- किं किंचणत्ति तक्कं अपुणब्भवकामिणोध देहोवि । संगत्ति जिणवरिंदा अप्पडिकम्मत्तिमुद्दिवा ॥ २१ ।। किं किंचनमिति तकः अपुनर्भवकामिनोथ देहोपि । संग इति जिनवरेन्द्रा अप्रतिकर्मत्वमुहिष्टवन्तः ॥ २६ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(अघ) अहो ( अपुणब्भवकामिणो ) पुनः भवरहित ऐसे मोक्षके इच्छुक साधुके (देहोवि) शरीर