________________
तृतीय खण्ड ।
[ १३३
साधुको योग्य है कि द्रव्य आहार शरीरादि क्षेत्र जंगल आदि, काल शीत उष्णादि, भाव अपने परिणाम इन चारोंको भली प्रकार देखकर तथा अपनी शक्ति व ध्यान या ग्रंथ पठनकी योग्यता देखकर आचरण करें || २७ ॥
उत्थानिका- आगे पूर्व गाथामें जिन उपकरणोंको साधु अपवाद मार्ग में काममें लेता है उनका स्वरूप दिखलाते हैं । अप्पses afi अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं । मुच्छादिजणणरहिंद गेदु समणो जदिवियप्पं ॥ २८ ॥ अप्रतिकुष्टमुपधिमप्रार्थनीयमसंयतजनैः ।
मूर्छादिजननरहितं गृह्णातु श्रमणो यद्यप्यल्पम् ||२८|| अन्वय सहित सामान्यार्थ - (समणो ) साधु ( उवधिं ) परिग्रहो (अप्पडिकुटुं ) जो निषेधने योग्य न हो, ( असंज़दनणेहिं अपत्थणिज्नं ) असंयमी लोगोंके द्वारा चाहने योग्य न हो (मुच्छादिनणणरहिदं) व मूर्छा आदि भावोंको न उत्पन्न करे (जदिवियष्पं) यद्यपि अल्प हो गेहणदु) ग्रहण करें ।
विशेषार्थ - साधु महाराज ऐसे उपकरणरूपी परिग्रहको ही ग्रहण करें जो निश्चय व्यवहार. मोक्षमार्ग में सहकारी कारण होनेसे निषिद्ध न हो, जिसको वे असंयमी जन जो निर्विकार आत्मानुभवरूप भाव संयमसे रहित हैं कभी मांगे नहीं न उसकी इच्छा करें, तथा जिसके रखनेसे परमात्मा द्रव्यसे विलक्षण बाहरी द्रव्यों में ममतारूप मूर्छा न पैदा हो जावे न उसके उत्पन्न करनेका दोष हो न उसके संस्कारसे, दोष उत्पन्न हो । ऐसे परिग्रहको यदि रक्खें
"
तौ भी बहुत थोडी रक्खै । इन लक्षणोंसे विपरीत परिग्रह न लेवें।