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तृतीय खण्ड। .: [१३३. इस तरह श्वेताम्बर मतके अनुसार माननेवाले शिष्यके संबोधनके लिये निग्रंथ मोक्षमार्गके स्थापनकी मुख्यतासे पहले स्थलमें पांच गाथाएं पूर्ण हुई। ____ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि किसी कालकी अपेक्षासे जब साधुकी शक्ति परम उपेक्षा संयमके पालनेको न हो तब वह आहार करता है, संयमका उपकरण पीछी व शौचका उपकरण कमंडल व ज्ञानका उपकरण शास्त्रादिको ग्रहण करता है ऐसा अपवाद मार्ग है।
छेदो जेण ण विजदि गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स । समणो तेणिह्र वटदु कालं खेत्तं वियाणिवा ॥ २७ ॥ छेदो येन न विद्यते प्रहणविसर्गेसु सेवमानस्य । श्रमणस्तेनेह वततो कालं क्षेत्र विज्ञाय ॥ २७ ॥ __ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(जेण गहण विसग्गेसु सेवमाणस्स) जिस उपकरणके ग्रहण करने व रखनेमें उस उपकरणके सेवनेवाले साधुके (छेदो ण विजदि) शुद्धोपयोगमई संयमका घात : न होवे (तेणिह समणो कालं खेतं वियाणित्ता वट्टदु) उसी उपकरणके साथ इसलोकमें साधु क्षेत्र और कालको जानकर वर्तन करे । '
विशेषार्थ-यहां यह भाव है कि कालकी अपेक्षा पञ्चमकाल या शीत उष्ण आदि ऋतु, क्षेत्रकी अपेक्षा मनुष्य क्षेत्र या नगर जंगल आदि इन दोनोंको जानकर जिस उपकरणसे स्वसंवेदन लक्षण भाव संयमका अथवा बाहरी द्रव्य संयमका घात न होवे. उस तरहसे मुनिको वर्तना चाहिये ।