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(१०) अपने पुत्र पौत्रोंको दी । दूसरे दिन उन पुरुषोंको बुलावार "जिनसे किमी प्रकार रंजस थी" क्षमा कगई और आपने भी क्षमाभाव धारण किए। तीसरे दिन आपने दवा वीरहका भी त्याग कर दिया तथा चौथे दिन सर्व प्रकारके आहार, परिग्रह व जलका भी त्यागकर णमोकारमंत्रकी आराधना करने २ ही शुभ भावोंसे अपने पौगलिक शरीरको छोड़कर पंचत्वको प्राप्त हुए ।
ला. भगवानदामजीको हर समय आप अपने पास रखते थे व वे भी पितानीकी सेवार्गे हमेशा तन्मय रहते थे तथा धर्मचर्चाकर उनसे नया२ बोध ले रहते थे। लाभगवानदासजीने १६ वपकी अल्पआयु संस्कनकी प्रथमा परक्षा उत्तीर्ग की। आपको पितानी व अन्य भाइयोंने धन वची करने का बहुत शौक था ब है भी। पिताजीने इन्हें धनी समझकर सर्वार्थसिद्धि स्वाध्यायको दी थी, जिसके मनन करनेसे आपके हृदय-काट खुल गए। फिर क्या था इन्हें धार्मिक ग्रन्थोंके स्वाध्यायकी चट लग गई और आपने गोम्मटसार, मोक्षमार्गप्रकाश आदि ग्रन्थों का भी मनन करना शुरू कर दिया, जिसने जैनधर्ममें आपो भर अडान व भारी भक्ति पैदा होगई।
___ला. भगवानदासजीका जन्म इटा ही चैत्र शुक्ल ११ स० १९३८में हुआ था। १६ वज्ञिी ना ही आपको पिताजीने स्वदेशी कपड़ेका दुकान माना था, परन्तु दो वर्ष बाद जब पिताजी तीर्थयात्रा ने गए तो इनसे दूकानका काम संभालनेके लिए कह गए, आपने पितानीजी अज्ञा शिरोधार्यकर उनकी दूकानका काम उनके आनेतक अच्छी तरह सम्हाला और उनके आनेके वाद फिर कपड़ेकी दुकान १३ वर्ष तक की व न्यायपूर्वक