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- तृतीय खण्ड। [EE उपाय साधुको करना है । ध्यान व तत्व विचारके लिये जो स्थान उपयोगी हो व जहां ब्रह्मचर्यको दोषित करनेवाले स्त्री पुरुषोंका समागम न हो व पशु पक्षी विकलत्रयोंका अधिक संचार न हो व जहां न अधिक शीत न अधिक उष्णता हो ऐसे सम प्रदेशमें ठहरते हुए भी साधु उसमें मोह नहीं करते। वर्षाकालके सिवाय अधिक दिन नहीं ठहरते । ममता छोड़नेके लिये व ध्यानकी सिद्धिके लिये व धर्म प्रचारके लिये साधुओंको विहार करना उचित है। इस विहार करनेके काममें भी ऐसा राग नहीं करते कि विहारमें नए नए स्थलोंके देखनेसे आनन्द आता है । साधु महाराज मात्र ध्यानकी सिद्धिके मुख्य हेतुसे ही परम वैराग्यभावसे विहार करते रहते हैं। यद्यपि शरीर सिवाय अन्य वस्त्रादि परिग्रहको साधुने त्याग दिया है तथापि शरीर, कमंडल, पीछी, शास्त्रकी परिग्रह रखनी पड़ती है क्योंकि ये ध्यानके लिये सहकारी कारण हैं तथापि साधु इनमें भी ममता नहीं करते। यदि कोई शरीरको कष्ट देवें, पीछी आदि लेलेवे तो समताभाव रखकर स्वयं सब कुछ सहलेते परन्तु अपने साथ कप्ठ देनेवालेपर कुछ भी रोष नहीं करते। धर्मचर्चा के लिये दूसरे साधुओंकी संगति मिलाते हैं तो भी उनमें वे रागभाव नहीं बढ़ाते, केवल शुद्धात्माकी भावनाके अनुकूल वार्तालाप करके फिर अलगर अपनेर नियत स्थानपर जा ध्यानस्थ व तत्वविचारस्थ हो जाते हैं। यदि कदाचित कहीं श्रृंगार, व वीर रस आदिकी कथाएं सुन पड़ें व प्रथमानुयोगके साहित्यमें काव्योंमें ये कथाएं मिलें व स्वयं काव्य या पुराण लिखते हुए इन कथाओंको लिखे तो भी साधु इन सबमें रागी नहीं होते वे इनको. वस्तु