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मित्र-भेद
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कपोल मुझे धीरे-धीरे जलाते हैं, यह ठीक नहीं है।' रथकार भी उसकी घबराई बातें सुनकर मुस्कराता हुआ बोला, "मित्र ! यदि यही बात है तो अपना मतलब सिद्ध हो गया समझ । आज ही तू राज-कन्या के साथ विहार कर ।" बुनकर ने कहा , “मित्र ! रक्षकों से घिरे हुए राजकुमारी के महल में, जहाँ हवा को छोड़कर और किसी का प्रवेश नहीं है, वहाँ उसके साथ मेरी भेंट कैसे हो सकती है ? झूठ बोलकर क्यों तू मेरा मजाक उड़ाता है ? " रथकार ने कहा, "मित्र! मेरी बुद्धि का बल देख ।" यह कहकर उसने उसी क्षण पुराने अर्जुन के पेड़ की लकड़ी से कील-काँटे से लैस उड़ने वाला गरुड़ बनाया तथा शंख-चक्र और गदा-पद्म से युक्त बाहु-युगल तथा किरीट
और कौस्तुभ मणि भी तैयार की। बाद में उस बुनकर को उसने गरुड़ पर बिठाया और उसे विष्णु के लक्षणों से सजाया , तथा उसे कल-पुरजा चलाने की बात बताकर कहा , “मित्र! इस प्रकार विष्णु का रूप धारण करके राजकुमारी के सत-खंडे महल के सबसे ऊपरी खंड में, जहाँ वह अकेली ही रहती है, तू आधी रात में जाना तथा भोली-भाली तुझे विष्णु मानती हुई उस कन्या को तू अपनी झूठी बातों से प्रसन्न करके वात्स्यायन की कही हुई विधि के अनुसार उसके साथ रति करना।" विष्णु का रूप धारण किए हुए बुनकर ने यह सुनकर और वहाँ पहुँचकर एकांत में राज-कन्या से कहा, "राज-पुत्रि! तू सोती है अथवा जागती है ? मैं तेरे प्रेम में फंसकर लक्ष्मी को छोड़कर समुद्र से यहाँ चला आ रहा हूँ, इसलिए तू मेरे साथ समागम कर।" वह राज-कन्या भी गरुड़ पर सवार चतुर्भुज , आयुधों तथा कौस्तुभ मणि से युक्त उसे देखकर आश्चर्य करती हुई खाट से उठ बैठी और कहा, "भगवन्! मैं मानवी अपवित्र कीड़ी के समान हूँ और भगवान त्रैलोक्य-पावन और वंदनीय हैं, फिर कैसे यह जोड़ पटेगा।" बुनकर ने कहा, “तूने सच ही कहा सुभगे ! तूने सच ही कहा; किंतु जिस राधा नाम की मेरी स्त्री का पहले गोप-कुल में जन्म हुआ था, वही तुझमें आज पैदा हुई है। इसलिए मैं आज यहाँ आया हूँ।" ऐसा कहने पर उसने जवाब दिया, “भगवन् ! यदि यही बात है