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पञ्चतन्त्र
आँखों वाला होता है और सभा में गुस्से और कड़ाई के साथ बोलता है । इसमें वदमाशी के लक्षण दीखते हैं; स्त्री का अंग-भंग करने से यह मृत्यु-दंड का भागी है । इसलिए इसे शूली पर चढ़ा दो ।"
उसे वध-स्थान पर ले जाते देखकर देवशर्मा ने धर्माधिकारियों के पास जाकर कहा, " न्यायाधीशो ! यह गरीब नाई अन्याय से मारा जा रहा है । यह तो सदाचारी है । मेरी बात सुनिए, 'मेढ़ों के यद्ध में सियार का अपना ही दोष था ।' तब न्यायाधीशों ने कहा, “भगवन्, यह किस तरह ? " इसके बाद देव ने तीनों का ब्यौरेवार हाल-चाल कहा । उसे सुनकर ताज्जुब में आकर उन्होंने नाई को छोड़ दिया और स्वतः कहने लगे, "अहो,
"ब्राह्मण, बालक, स्त्री, तपस्वी और रोगी अवध्य हैं, बड़े अपराध करने पर भी अंगच्छेद ही उनका दंड है ।
इसकी नाक काटना उसके कर्म का ही फल है । इसलिए राज - दंडस्वरूप इस स्त्री के कान काट लेने चाहिएं ।” ऐसा हो जाने पर धन नाश के दुःख से रहित होकर देवशर्मा भी पुनः अपने मठ चले आए ।
करटक ने कहा, "ऐसी हालत में हम दोनों को क्या करना चाहिए ?" दमनक ने कहा, "ऐसे समय भी मेरी बुद्धि ऐसा फड़केगी, जिसमें मैं स्वामी से संजीवक को अलग कर सकूंगा ।" कहा भी है
“धनुर्धारी के तीर से एक के मरने या न मरने से क्या होता है ? बुद्धिमानों की तरतीब से नायक के साथ सारा राष्ट्र मर जाता है । इसलिए मैं छिपी चाल से उसे तोड़ डालूंगा ।" करटक ने कहा, "भद्र ! यदि किसी तरह तेरी चाल का पिंगलक को पता लग गया तो संजीवक के बदले तेरी मौत होगी ।" उसने कहा, "तात ! ऐसा मत कह; आपत्ति-काल में देव के प्रतिकूल होने पर भी, चालबाजियों का प्रयोग उचित है, कोशिश नहीं छोड़नी चाहिए। कदाचित् घुणाक्षर - न्याय से बुद्धि का राज होता है । कहा भी है।
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"दैव के प्रतिकूल होने पर भी धीरज नहीं छोड़ना चाहिए। धैर्य से