________________
मित्र-भेद
रहने से स्नेह, अभिमान से स्त्री, न देखने से खेती तथा दान
और प्रमाद से धन नाश पाते हैं। इसीलिए व्रत लेने के बाद तुझे मठ के दरवाजे पर फूस की झोंपड़ी में सोना होगा।" आषाढभूति ने कहा, "आपकी आज्ञा मुझे मान्य है, क्योंकि परलोक में वही मेरे काम आएगी।" इस तरह सोने की शर्त बाँधकर देवशर्मा ने कृपा करके शास्त्रोक्त विधि से उसे शिष्य बनाया। उसने भी हाथ-पैर दाबकर और सेवा करके देवशर्मा को खुश किया। फिर भी उस संन्यासी ने अपने बगल से धन की थैली को अलग नहीं किया।
इस तरह कुछ समय बीतने पर आषाढभूति बिनारने लगा, “यह किसी तरह मेरा विश्वास नहीं करेगा । तो क्या फिर मैं दिन में इसे हथियार से मार डालूं, उसे विष दे दूं या पशु की तरह उसका वध करूँ?" जब वह यह सोच रहा था उसी अवसर देवशर्मा के किसी चेले का लड़का घूमता हुआ उसे निमंत्रण देने आया। उसने कहा, “भगवन् ! यज्ञोपवीत देने के लिए आप मेरे यहाँ पधारिए ।" यह सुनकर खुशी-खुशी देवशर्मा आषाढ़-भूति के साथ निकल पड़ा।
इस प्रकार आगे बढ़ने पर एक नदी मिली । उसे देखकर देवशर्मा ने रुपये की थैली बगल से निकाल और कथरी में छिपाकर स्नान और देव-पूजा के बाद आषाढभूति से कहा, "आपाढ़भूति, जब तक मैं निबट आऊँ तब तक योगेश्वर की यह कथरी तू सँभाले रखना।" यह कहकर वह चला गया। उसके छिप जाने पर आषाढ़भूति थैली लेकर चम्पत हुआ। अपने शिष्य के गुणों से प्रसन्न बेखटके देवशर्मा जब शौच को बैठा तो उसने सुनहली ऊन वाले मेढ़ों के झुंड में से दो मेढ़ों को लड़ते देखा । ये दोनों मैढ़े कुछ दूर पीछे हटकर फिर एक-दूसरे के सामने आकर गुस्से से एक-दूसरे के सिर से टक्कर ले रहे थे, जिससे उनके सिरों से काफी लहू बह रहा था। जीभ के लालचवश एक सियार उस रंगभूमि में आकर लहू का स्वाद ले रहा था। यह देखकर देवशर्मा सोचने लगा, “यह सियार पूरा बेवकूफ