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मित्र-मंद
स्वामी का नहीं। कहा भी है---
"मेढ़ों की लड़ाई में सियार ने आषाढ़भूति से हमने, और दूसरे के काम करने से दूती नाइन ने (इन तीनों ने दुःख पाया), इन तीनों
के इनमें अपने ही दोष थे।" करटक ने कहा , “ यह कैसे ?" दमनक कहने लगा --
आषाढ़भूति, सियार और दूती आदि की कथा
"किसी एकांत प्रदेश में एक मठ था। वहाँ देवशर्मा नाम का एक परिव्राजक रहता था। अनेक साहूकारों द्वारा दिये गए महीन वस्त्रों के बेचने से उसके पास काफी धन इकट्ठा हो गया, इसीलिए वह किसी का विश्वास नहीं करता था। रात और दिन वह धन की थैली अपनी बगल में ही । रखता था । अथवा ठीक ही कहा है कि
"धन पैदा करने में दुःख है, पैदा किये हुए धन की रक्षा करने में भी दुःख है, आमदनी में भी दुःख है, खर्च में भी दुःख है, इसलिए
तकलीफ देने वाले धन को ही धिक्कार है।" उसी बीच दूसरे का धन चुराने वाला आषाढ़भूति नाम का एक धूर्त उसकी बगल में पड़ी हुई रुपये की थैली देखकर विचारने लगा कि "मैं इस परिव्राजक के धन को किस तरह चुराऊँ। इस मठ की दीवारें मजबूत पत्थर की बनी होने से उनमें सेंध भी नहीं लग सकती। दरवाजा खूब ऊँचा होने से उसे डाँककर भीतर घुसना भी मुश्किल है। इसलिए कपट की बातों से उसका विश्वास प्राप्त करके उसका शिष्य हो जाऊँ जिससे भूलकर कदाचित् वह मेरा विश्वास करने लगे। कहा भी है-- .
''असंस्कारी मनुष्य मीठे वचन नहीं बोलता, ठग खुली बातें नहीं करता, निस्पृह मनुष्य किसी का अधिकार नहीं मांगता और
काम-रहित मनुष्य गहनों की चाह नहीं करता।" . इस प्रकार निश्चय करके उसने देवशर्मा के पास जाकर 'ओं नमः शिवाय ' ललकारते हुए उससे विनयपूर्वक कहा , “भगवन् ! यह संसार