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के पारङ्गत विद्वान् थे । जिस समय उन्होंने पञ्चतन्त्र की रचना की उस समय उनकी आयु अस्सी वर्ष की थी । नीतिशास्त्र का परिपक्व अनुभव उन्हें प्राप्त हो चुका था । उन्होंने स्वयं कहा है - " मैंने इस शास्त्र की रचना का प्रयत्न अत्यन्त बुद्धिपूर्वक किया है जिससे श्रौरों का हित हो । " जिस समय उन्होंने यह ग्रन्थ लिखा उनका मन सब प्रकार के इन्द्रिय-भोगों से निवृत्त हो चुका था और थपभोग का भी कोई आकर्षण उनके लिए नहीं रह गया था। इस प्रकार के विशुद्ध-बुद्धि, निर्मल-चित्त इस ब्राह्मण ने मनु, बृहस्पति, शुक्र, पराशर, व्यास, चाणक्य आदि श्राचायों के राजशास्त्र और अर्थशास्त्रों को मथकर लोकहित के लिए पञ्चतन्त्र रूपी यह नवनीत तैयार किया । ईरानी सम्राट् खुसरो के प्रमुख राजवैद्य और मंत्री बुजुए ने पञ्चतन्त्रको अमृत की संज्ञा दी है जिसके प्रभाव से मृत व्यक्ति भी जीवित हो उठते हैं। उसने किसी पुस्तक में पढ़ा कि भारतवर्ष में किसी पहाड़ पर संजीवनी ौषधि है जिसके सेवन से मृत व्यक्ति जी उठते हैं । उत्कट जिज्ञासा से वह ५५० ई० के लगभग इस देश में आया और यहाँ चारों और संजीवनी की खोज की । जब उसे ऐसी बूटी न मिली तब निराश होकर एक भारतीय विद्वान् से पूछा, "इस देश में अमृत कहाँ है ?” उसने उत्तर दिया, "तुमने जैसा पढ़ा था, वह ठीक है । विद्वान् व्यक्ति वह पर्वत है जहाँ ज्ञान की यह बूटी होती है और जिसके सेवन से मूर्ख-रूपी मृत व्यक्ति फिर से जी जाता है । इस प्रकार का अमृत हमारे यहाँ के पञ्चतन्त्र नामक ग्रन्थ में है ।" तब बुजुए पञ्चतन्त्र की एक प्रति ईरान ले गया और वहाँ सम्राट के लिए उसने पहलवी भाषा में उसका अनुवाद किया । पञ्चतन्त्र का किसी विदेशी भाषा में यह पहला अनुवाद था, पर अब यह नहीं मिलता । उसके कुछ ही वर्ष बाद लगभग ५७० ई० में पहलवी पञ्चतन्त्र का सीरिया देश की प्राचीन भाषा में अनुवाद हुआ । यह अनुवाद अचानक उन्नीसवीं शती के मध्य भाग में प्रकाश में श्राया । इसका सम्पादन और अनुवाद जर्मन विद्वानों ने किया है । यह अनुवाद मूल संस्कृत पञ्चतन्त्र के भाव और कहानियों के सबसे अधिक सन्निकट है ।