________________
२२८
पञ्चतन्त्र
गंगदत्त बोला, “तू मेरे साथ चल, मैं तुझे आसानी से वहां पहुँचा दूंगा। उस कुएँ के बीच में पानी से लगा हुआ एक कोटर है उसमें रहकर तू खेलमें ही मेरे रिश्तेदारों को मार सकेगा।" यह सुनकर सांप ने सोचा , “बूढ़े हो जाने पर किसी तरह से कभी एक चूहा मिल जाता है। इस कुलांगार ने मुझे सुख से जीने का उपाय बता दिया है। इसलिए मैं जाकर उन मेढकों को खा जाऊंगा । अथवा ठीक ही कहा है--
"जिसका बल छीज गया हो और जिसका कोई सहारा न हो , ऐसे बुद्धिमान मनुष्य को सहूलियत के साथ मिलने वाली रोजी
पकड़नी चाहिए।" यह सोचकर उसने कहा, “अगर यह बात है तो तू आगे हो ले। जिससे हम दोनों वहाँ चलें।" गंगदत्त ने कहा, “हे प्रियदर्शन ! मैं तुझे अच्छी तरह से वहां ले चलूंगा और स्थान दिखलाऊंगा । पर तुझे मेरे साथियों को बचाना होगा। केवल जिन्हें मैं दिखलाऊंगा तू उन्हें ही खाना।” सर्प ने कहा, "आज से तू मेरा मित्र हो गया है, इसलिए डर मत। तेरे कहने के अनुसार ही मैं तेरे रिश्तेदारों को खाऊंगा।" यह कहकर वह बिल से निकला और गंगदत्त से गले मिलकर उसके साथ चल पड़ा। कुएं पर पहुंचकर रँहट के रास्ते वह सर्प को अपने घर लाया। उस काले सांप को खोखले में रखकर गंगदत्त ने उसे अपने रिश्तेदारों को दिखला दिया। बाद में वह धीरे-धीरे उन्हें खा गया। मेढकों के खत्म हो जाने पर सांप ने कहा, "भद्र ! तेरे शत्रु खत्म हो गए, अब मुझे और भोजन बता, क्योंकि तू ही मुझे यहां लाया है।" गंगदत्त ने कहा, "भद्र! तूने अपने दोस्त का बड़ा काम किया है, अब फौरन रहठ के घड़े के रास्ते वापस चला जा।" सर्प ने कहा, "अरे गंगदत्त! तूने यह ठीक नहीं कहा। अब मैं वहां कैसे जाऊं? मेरे बिल को दूसरे ने घेर लिया होगा इससे मेरे यहां रहने पर अपने दल के एक मेढक को तू बारी-बारी मुझे दे, नहीं तो मैं सबको खा जाऊंगा।" यह सुनकर गंगदत्त घबराकर सोचने लगा , “अरे! मैंने इस सांप को यहां लाकर क्या किया ? अगर मैं इसे मना करूंगा तो यह सबको खा जायगा । अथवा ठीक ही कहा है -