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काकोलूकीय
२१३ रथकार भी उसकी बात सुनकर पुलकित शरीर से खाट के नीचे से बाहर निकलकर उससे बोला, “साधु पतिव्रते ! साधु ! हे कुलनन्दिनी ! बदमाशों की बात से शरम में आकर मैं तेरी परीक्षा के लिए गाँव से बाहर जाने का बहाना करके छिपकर खाट के नीचे बैठा था। आ, मेरा आलिंगन कर । स्वामिभक्ति करने वाली स्त्रियों में तू मुख्य है। तूने दूसरे आदमी के साथ रहकर भी अपने पातिव्रत-धर्म का पालन किया। मेरी आयु बढ़ाने के लिए और अपमृत्यु टालने के लिए तूने यह सब किया।" उससे यह कहते हुए उसने प्रेम के साथ उसका आलिंगन किया
और उसे अपने कंधे पर चढ़ाकर देवदत्त से कहा, "अरे ! महानुभाव ! मेरे पुण्य से तुम यहां आये हो। तुम्हारी कृपा से मैंने सौ वर्ष की आयु पाई है। तुम भी मेरे कंधे पर चढ़ो।" इस तरह कहते हुए देवदत्त के न चाहने पर भी उसने भेंटकर जबर्दस्ती उसे अपने कंधे पर चढ़ा लिया। बाद में नाचते हुए उसने कहा-“हे ब्राह्मणों के धुरी, तूने भी मेरा उपकार किया है।" इत्यादि कहते हुए उसे कंधे से उतारकर अपने रिश्तेदारों के दरवाजे पर गया और वहां उन दोनों के गुणों का वर्णन किया। ।
इसलिए मैं कहता हूं, "सामने पाप करने पर भी मूर्ख साम से शांत हो जाता है । रथकार ने अपनी पत्नी को उसके जार के साथ अपने सिर चढ़ाया।" इसलिए हम सब समूल नष्ट हो जाने वाले हैं। ठीक ही कहा है कि "जो हित की बात छोड़कर उलटी बात मानते हैं वे चतुरों द्वारा मित्ररूप शत्रु माने जाते हैं। और भी " संत भी देशकाल विरोधी बेवकूफ सलाहकारों को पाकर उसी तरह
धन खो देते हैं जैसे सूर्योदय पर अंधेरा गाढ़ा हो जाता है।" उसकी बातों का अनादर करके वे सब स्थिरजीवी को उठाकर अपने दुर्ग में ले जाने लगे। इस तरह ले जाये जाकर स्थिरजीवी ने कहा, “देव! काम करने में असमर्थ मुझ-जैसे को रखने से क्या फायदा? मैं जलती आग में