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काकोलूकीय
तो कोई बात से भी आपकी मदद नहीं करेगा। कहा है कि
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आग जब तक वन जलाती रहती है तब तक हवा उसकी मित्र रहती है, पर वही हवा दीपक का नाश करती है । कमजोरी की हालत में कौन मित्र है ?
अथवा एक ही बलवान का सहारा लेना यह भी कोई दृढ़ नियम नहीं है । छोटों का भी आसरा लेने पर रक्षा होती है। कहा भी है
“घने बांसों से घिरा हुआ एक बांस जिस तरह उखाड़ा नहीं जा सकता, उसी तरह कमजोर राजा भी अगर समुदाय वाला हो तो वह उखाड़ा नहीं जा सकता ।
फिर बड़ों का सहारा हो तो कहना ही क्या है ! कहा है कि
"बड़ों का साथ किसकी उन्नति नहीं कर सकता । कमल के पत्ते के ऊपर का पानी मोती की आभा देता है ।
इसलिए बिना सहारे के किसी तरह बदला नहीं लिया जा सकता । सहारा लेकर पीछे लड़ाई करना, यही मेरा अभिप्राय है ।" इस तरह चिरंजीवि ने अपना विचार कहा। उसके कहने के बाद मेघवर्ण राजा ने अपने पिता के पुराने बूढ़े मंत्री स्थिरजीवि से, जो सब नीति - शास्त्रों में पारंगत था, प्रणाम करके कहा, “बाबा ! अपके यहां बैठे रहते भी इन सचिवों की परीक्षा लेने के लिए मैंने इनसे पूछा था । यह सब सुनकर आप मेरे लिए जो उचित हो वैसा कहिए । अगर इनकी बात ठीक है तो वैसी आज्ञा - कीजिए ।" उसने उत्तर दिया, “इन सबने नीति शास्त्र के अनु. सार ही बातें कहीं हैं । यह बातें अपने-अपने समय पर ही काम की हैं, पर यह समय दुतरफी चाल का है । कहा है कि
“बलवान शत्रु का सुलह और लड़ाई करते हुए जीतने का भरोसा नहीं । दुतरफी चाल का सहारा लेने पर ऐसा नहीं होता । शत्रु को विश्वास और अविश्वास का लोभ दिखलाते हुए उसका सुखपूर्वक नाश हो सकता है । कहा है कि
“ उखाड़ने लायक शत्रु को भी विद्वान् एक बार ऊपर उठाते हैं;