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मित्र-संप्राप्ति
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शिकायत नहीं कर सकता। इसलिए मुझे अवश्य परदेस जाना चाहिए।" इस तरह निश्चय कर वह वर्धमानपुर में जाकर वहां तीन वर्ष रहकर और तीन सौ मुहरें पैदा करके अपने घर आने के लिए निकल पड़ा। आधे रास्ते में वह जंगल में घुसा । उसी समय ,सूरज डूब गया । जंगली जानवरों के भय से बरगद की लम्बी शाखा पर चढ़कर सोते हुए उसने आधी रात को दो भयंकर आकृति काले पुरुषों को आपस में बातचीत करते हुए सुना । उनमें से एक बोला, “हे कर्ता, क्या तू यह नहीं जानता कि सोमिलक के भाग्य में भोजन और वस्त्र के लिए जितने धन की आवश्यकता है उससे अधिक धन नहीं बचा है ? फिर तूने क्यों इसे तीन सौ मुहरें दी?" वह बोला, “हे कर्म ! मुझे उद्योगी मनुष्यों को अवश्य देना चाहिए। पर इसका परिणाम तेरे हाथ में है।" ___ बुनकर ने जागने पर अपने मुहरों की गांठ जब टटोली तब उसे खाली पाया। इस पर दुखी होकर वह सोचने लगा ; "अरे यह क्या ? बड़े कष्ट से पैदा किया हुआ धन खेल ही में कहां चला गया ? मेरा परिश्रम व्यर्थ हो गया है। अब मैं इस गरीबी की हालत में अपनी पत्नी और मित्रों को कैसे मुंह दिखाऊंगा?"
इस तरह निश्चय करके वह फिर उसी शहर को वापस लौट गया। वहां एक वर्ष में पांच सौ मुहरें पैदा करके वह फिर अपनी जगह लौटने के लिए निकल पड़ा । आधे रास्ते में जंगल पड़ा और उसी समय सूरज डूब गया । थके होते हुए भी मुहरों के खोने के भय से बिना आराम के केवल अपने घर जाने की उत्कंठा से वह जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने लगा। उसी समय पहले ही जैसे दो पुरुष उसकी आंखों के सामने आये और बातचीत करते सुन पड़े। उनमें से एक ने कहा , “हे कर्ता ! तूने पांच सौ मुहरें इसे किस लिए दी? क्या तू जानता नहीं कि भोजन और वस्त्र से ज्यादा इसके भाग्य में नहीं है ?" वह बोला , “हे कर्म ! उद्योगियों को तो मुझे अवश्य देना चाहिए , पर उसका परिणाम तेरे अधीन है। इसलिए तू मुझे ताना क्यों मारता है ?" यह सुनकर सोमिलक ने जब अपनी गांठ देखी तो उसमें