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मित्र-संप्राप्ति
. १२५ "अरे मित्र हिरण्यक, जल्दी आ, मैं बडे दुःख में हूं।" यह सुनकर अपने बिल रूपी किले के अंदर से हिरण्यक बोला-"अरे तुम कौन हो और किसलिए आये हो ? तुम किसलिए दुखी हो यह कहो।" यह सुनकर चित्रग्रीव ने जब कहा, "मैं तेरा मित्र चित्रग्रीव नामक कबूतरों का राजा हूं। इसलिए जल्दी से तू निकल, तेरा बहुत काम है।" यह सुनकर पुलकित शरीर, प्रसन्नमन और एकाग्रचित्त से हिरण्यक जल्दी से बाहर निकला। अथवा ठीक ही कहा है
"प्रेमी और आंखों को सुख देने वाले मित्र नित्य महात्मा गृहस्थों के
घर आते हैं। "हे तात! सूर्योदय, पान, वाणी, कहानी, मनचाही पत्नी और सन्मित्र
रोज-रोज अपूर्व ही दिखते हैं। "जिसके घर मित्र नित्य आते हैं उसे जो सुख मिलता है उस सुख
की बराबरी नहीं की जा सकती।" बाद में परिजनों के सहित चित्रग्रीव को जाल में बंधा हुआ देखकर हिरण्यक ने विषादपूर्वक कहा, “अरे यह कैसे ?" चित्रग्रीव ने कहा, "अरे तू जानते हुए भी क्या पूछता है ? कहा भी है कि ।
"जिस कारण से, जिसके लिए, जिस रीति से, जब, जो, जितना
और जहां मनुष्य का जितना शुभ और अशुभ कर्म होता है उसी से, उसके लिए, उसी तरह, वैसे ही, उतना ही और वही मनुष्य
को काल के वश प्राप्त होता है। मुझे यह दुःख जीभ के लालच से मिला है, इसलिए तू अब मुझे बंधन से छुड़ा, देर मत कर।
"जो पक्षी डेढ़ सौ योजन से मांस देखता है, भाग्यवश वह पास
के ही बंधन को देख नहीं सकता। उसी प्रकार "सूर्य और चन्द्रमा का ग्रह द्वारा पीड़न, हाथी, सर्प और पक्षियों का बंधन और बुद्धिमान पुरुष की दरिद्रता देखकर मेरे मन में विचार