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मित्र-संप्राप्ति
अब मित्र-संप्राप्ति नामक दूसरा तंत्र आरम्भ होता है जिसका यह पहला श्लोक है
"बुद्धिमान, बहुश्रुत और प्राज्ञ पुरुष बिना साधन के होते हुए
भी कौए, चूहे, हिरन और कछुए की तरह अपना काम झटपट : सिद्ध कर डालते हैं। इस बारे में ऐसा सुनने में आता है--
दक्षिण जनपद में महिलारोप्य नामक एक नगर है। उससे थोड़ी दूर पर अनेक तरह के पक्षी जिसका फल खाते थे, अनेक तरह के कीड़े जिसके खोखलों में रहते थे और जिसकी छाया में पथिकों के समूह विश्राम वाते थे,ऐसा एक बहुत ऊंचा बरगद का पेड़ था। अथवा यह ठीक ही कहा है
"जिसकी छाया में जानवर सोते हैं, जिसकी डालियों पर पक्षियों के झंड विश्राम लेते हैं, कीड़ों से जिसका कोटर छाया हुआ है, जिसकी डालियों के ऊपर बन्दर आराम करते हैं तथा जिसके फूलों का रस भौंरे बेखटके पीते हैं, ऐसा अपने सब अंगों से बहुत से जीवों के समूहों को सुख देने वाला उत्तम वृक्ष सत्पुरुषों
द्वारा प्रशंसनीय है । दूसरे वृक्ष तो पृथ्वी पर भाररूप हैं।" उस पेड़ पर लघुपतनक नाम का एक कौआ रहता था। एक समय चारा