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मित्र-भेद
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से कहा, "अरे मूर्ख ! इन दोनों का विरोध बढ़ाकर तूने अच्छा नहीं किया । तू नीति - शास्त्र के तत्व भी नहीं जानता । नीति शास्त्र के पंडितों ने कहा है कि
"जिन कामों में अतिशय दमन और साहस दिखलाना पड़ता है तथा जिन कामों में बड़ी मेहनत की आवश्यकता पड़ती है। उन्हें जो नीतिज्ञ पुरुष मजे से अपनी बुद्धि से केवल डरा-धमका कर ही कर देते हैं, वे ही मंत्री कहलाते हैं; इसके विपरीत दमन से जो निःसार और छोटे नतीजे वाले काम करना चाहते हैं वे अपने
मूर्खता भरे कामों से राजलक्ष्मी को तराजू पर चढ़ा देते हैं । अगर इस लड़ाई में स्वामी मारे गए तो तेरी सलाह किस काम की ? अगर संजीवक न मारा गया तो भी कुछ ठीक नहीं होगा, क्योंकि जान खतरे में होने से उसे मरना तो है ही । मूढ़ ! तू कैसे मंत्रिपद की उम्मीद करता ? भय दिखलाकर तू काम पूरा करना नहीं जानता । केवल दंड पर भरोसा रखने वाले तुझ जैसे का यह मनोरथ बेकार है । कहा भी है"ब्रह्मा ने साम से लेकर दंड तक चार नीतियां कही हैं; उनमें दंड पाप का न्याय है, इसलिए उसका प्रयोग सबके अन्त में करना चाहिए ।
और भी
“जहां डराकर काम बनता हो वहां बुद्धिमान पुरुष को दंड नहीं बरतना चाहिए । यदि शक्कर से पित्त शांत हो जाता है तो परवल की क्या जरूरत ?
उसी प्रकार
" बुद्धिमान पुरुष को पहले साम का प्रयोग करना चाहिए | साम द्वारा किये हुए काम कभी नहीं बिगड़ते ।
'शत्रु द्वारा पैदा किया हुआ अंधेरा चन्द्रमा, सूर्य, औषधि - विशेष अथवा आग से नहीं जाता, केवल साम से ही वह मिटता है ।
उसी तरह, अगर तू मंत्रिपद चाहता है, तो वह भी ठीक नहीं, क्योंकि