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________________ पञ्चतन्त्र कुछ फल नहीं मिलता।" दूत ने कहा, "हे गरुड़ ! भगवान के प्रति कभी भी तूने ऐसी बातें नहीं की। यह तो बता कि भगवान ने तेरा कौन-सा ऐसा अपमान किया है?" गरुड़ ने कहा , “भगवान के घर के समान समुद्र ने हमारे टिटिहरे के अंडे चुरा लिये। इसलिए वे अगर समुद्र को दबाते नहीं, तो मैं उनका सेवक नहीं । तू मेरा यह निश्चय भगवान से जाकर कह देना। इसलिए तुझे जल्दी से भगवान के पास जाना चाहिए।" प्रेम से कुपित गरुड़ की बात दूत के मुंह से सुनकर भगवान सोचने लगे, "अहो! गरुड़ का क्रोध करना ठीक है। इसलिए मैं स्वयं जाकर आदर से उसे यहां ले आऊँगा। कहा भी है कि ''जो अपनी उन्नति चाहता है उसे आज्ञाकारी, जोरदार और खानदानी सेवक की बेइज्जती नहीं करनी चाहिए, उसका पुत्र की तरह पालन करना चाहिए। और भी "राजा अगर प्रसन्न हुआ तो सेवक को केवल दान देता है , पर सेवक तो केवल इज्जत मिलने से ही प्राण भी देकर उसका उपकार करता है।" इस प्रकार विचार करके भगवान रुक्मपुर में गरुड़ के पास जल्दी से पहुँचे । गरुड़ भी भगवान को अपने घर आया देखकर शरम से नीचा मुख कर प्रणाम कर बोले , "भगवन् ! आपका घर होने के कारण घमंड में आकर समुद्र ने मेरे सेवक के अंडे चुराकर मेरी बेइज्जती की है। पर आपकी लज्जा से मैं रुक गया हूँ, नहीं तो मैं अभी उसे जमीन बनाकर छोड़ देता, क्योंकि स्वामी के भय से उसके कुत्ते को भी नहीं मारा जाता । कहा है कि "जिससे स्वामी के मन में छोटापन अथवा दुख हो, ऐसा काम अपनी जान जोखिम में रहते हुए भी खानदानी सेवक नहीं करता।" यह सुनकर भगवान बोले, "हे गरुड़! तेरी बात सच्ची है। कहा है कि ''सेवक के कसूर की वजह से यदि उसे दंड मिले तो वह दंड स्वामी को ही मिला मानना चाहिए, क्योंकि दंड से पैदा शरम जितनी स्वामी
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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