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पञ्चतन्त्र हरी बोली , "अरे, समुद्र के साथ तेरी कैसी लड़ाई ? तेरा समुद्र के ऊपर गुस्सा करना ठीक नहीं । कहा भी है कि .
"कमजोर आदमी का गुस्सा उसी के लिए तकलीफदेह होता है।
बहुत जलता हुआ मिट्टी का बर्तन अपने बगलों को ही जलाता है। और भी "अपनी तथा शत्रु की ताकत जाने बिना जो केवल उत्सुक होकर
सामने जाता है वह आग में पतिंगे की तरह नष्ट हो जाता है।" टिटिहरे ने कहा, "प्रिये ! ऐसा न कह । उत्साह और साहस से भरे छोटे भी बड़ों को हरा देते हैं। कहा है कि
"असहनशील पुरुष विशेष कर के भरे-पूरे शत्रु का सामना करते हैं-उसी तरह जिस तरह राहु पूर्ण चन्द्र का सामना करता है । और भी "अपने शरीर से प्रमाण में कहीं अधिक तथा जिसके गंडस्थल से काला मद गिर रहा है ऐसे मस्त हाथी के सिर के ऊपर सिंह
अपने पैर रखता है। और भी 'बाल सूर्य का पाद (किरण अथवा पैर)पर्वत (अथवा राजा) के ऊपर पड़ता है। जो तेजस्वी ही होकर जन्मा है उसकी उमर से क्या काम ? "खूब मोटा-ताजा हाथी भी अंकुश के वश में हो जाता है; फिर क्या अंकुश हाथी के बराबर होता है ? जलते हुए दीपक से अंधेरा हट जाता है ; फिर क्या दीप अंधेरा जितना बड़ा होता है ? बिजली गिरने से पहाड़ गिर जाते हैं ; फिर क्या बिजली
पहाड़ जितनी बड़ी होती है ? जिसमें तेज विराजता है, वही - बलवान है। इसलिए बड़े होने पर ही कोई विश्वास नहीं करता।
इसलिए मैं अपनी चोंच से समुद्र का सारा पानी सोखकर उसे सुखा डालूंगा।" टिटिहरी बोली , "मेरे प्रिय ! जिसमें गंगा और