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द्वादशानुप्रेक्षा
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अनेक दोषरूपी तरंगोंसे युक्त तथा दुःखरूपी जलचर जीवोंसे व्याप्त संसाररूपी समुद्रमें जीवका जो परिभ्रमण होता है वह कर्मास्रवके कारण होता है। अर्थात् कर्मास्रवके कारण ही जीव संसारसमुद्र में परिभ्रमण करता है।।५६।।
कम्मासवेण जीवो, बूडदि संसारसागरे घोरे।
जंणाणवसं किरिया, मोक्खणिमित्तं परंपरया।।५७।। कर्मास्रवके कारण जीव संसाररूपी भयंकर समुद्रमें डूब रहा है। जो क्रिया ज्ञानवश होती है वह परंपरासे मोक्षका कारण होती है।।५७।।
आसवहेदू जीवो, जम्मसमुद्दे णिमज्जदे खिप्पं ।
आसवकिरिया तम्हा, मोक्खणिमित्तं ण चिंतेज्जो।।५८।। आस्रवके कारण जीव संसाररूपी समुद्रमें शीघ्र डूब जाता है इसलिए आस्रवरूप क्रिया मोक्षका निमित्त नहीं है ऐसा विचार करना चाहिए।
भावार्थ -- अशुभास्रवरूप क्रिया तो मोक्षका कारण है ही नहीं, परंतु शुभास्रवरूप क्रिया भी मोक्षका कारण नहीं है ऐसा चिंतन करना चाहिए।।५८।।
पारंपज्जाएण दु, आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं।
संसारगमणकारणमिदि शिंदं आसवो जाण।।५९।। परंपरासे भी आस्रवरूप क्रियाके द्वारा निर्वाण नहीं होता। आस्रव संसारगमनका ही कारण है। इसलिए निंदनीय है ऐसा जानो।।५९।।।
पुव्वुत्तासवभेदा, णिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स।
उहयासवणिम्मुक्कं, अप्पाणं चिंतए णिच्चं ।।६० ।। पहले जो आस्रवके भेद कहे गये हैं वे निश्चयनयसे जीवके नहीं हैं, इसलिए आत्माको दोनों प्रकारके आस्रवोंसे रहित ही निरंतर विचारना चाहिए।।६० ।।
संवरानुप्रेक्षा चलमलिनमगाढं च, वज्जिय सम्मत्तदिढकवाडेण।
मिच्छत्तासवदारणिरोहो होदि त्ति जिणेहि णिद्दिढ़।।६१।। चल, मलिन और अगाढ़ दोषको छोड़कर सम्यक्त्वरूपी दृढ़ कपाटोंके द्वारा मिथ्यात्वरूपी आस्रवद्वारका निरोध हो जाता है ऐसा जिनेद्रदेवने कहा है।।
भावार्थ -- चल, मलिन और अगाढ़ ये सम्यग्दर्शनके दोष हैं। इनका अभाव हो जानेपर सम्यग्दर्शनमें दृढ़ता आती है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार आस्रव हैं। यहाँ मिथ्यात्वके निमित्तसे