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[ १७ ] दुःखसंदोहभागिन्वं संयोगादिह देहिनाम् । त्यजाम्येनं ततः सर्व मनोवाकायकर्मभिः॥
श्री पूज्यपाद ।
१६-३७०. मनोहर ! तुम अपने गुरु द्वारा प्राप्त इन उपदेशों को रचात्मक करने लगो तव गुरु का व अपना आदर किया यह समझूगा। १-जिस त्याग में इतने विकल्प हों वह त्याग नहीं एक तरह की आत्मवञ्चना है, यह वञ्चित भाव मोहमद का नशा उतरे बिना नहीं जा सकता, कितने ही स्वांग धरो स्वांग तो स्वांग 'नकल तो नकल ही है---मूर्ति में भगवान् की स्थापना कर के काम निकाल लो परन्तु दिव्यध्वनि नहीं खिरने लगेगी। २-निरपेक्षता ही परमधर्म है हम आपको यही उपादेय है। ३-जो आताप आत्मस्थ है उसका प्रतीकार-पास होने पर भी-अभी दूर है, यह आताप जो बाह्य है उसका तो सरल उपाय है प्रायः सर्व ही उपचार कर देते हैं, जो आभ्यन्तर आताप है उसके अपहरण के लिये .