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६प्रशंसा-निन्दा
१-३६. अपने महत्त्व की सिद्धि के अर्थ दूसरों की निन्दा कहने या सुनने में रुचि न कर, आत्मा का महत्त्व अपने शार है। "मन्द्र का महत्त्व नालाबों की तुच्छता बताने में नहीं है किन्तु स्वयं है।
२-१४०. दूसरों की निन्दा करने या मुनने में रुचि होना
ही ने लघुना (तुच्छता) का सूचक है, फिर उस आय में महत्व की केमे आशा हो सकती है।
३-१४१. अपनी प्रशंसा सुनन में है और रुचि न करो,
न्वप्रशंसाश्रयण ही मोही जीवों को बड़ी विपदा है, इसका फल नीच गोत्र में पैदा होना है।
ॐ ॐ ॐ ४-१४२. पहिल तो संसार ही नीच पद है उसमें भी नरक नियंच दीन अङ्गहीन मनुष्य आदि जैसी निम्न