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एक मानने में अनेकांत का विनाश है, अपेक्षायें अनेक मानने में नहीं क्योंकि वह तो वस्तुस्वभाव है । फ्र ॐ फ्र
५- ११६. आत्मस्वरूप में न किसी वस्तु का संयोग है और वियोग है फिर कहाँ हर्प किया जाय और कहां खेट किया जाय ।
फ्र ॐ फ
६- १५५, कल्पना जाल हा संसार है अतः वस्तुस्वरूप को लक्ष्य में रखकर कल्पनाओं को मिटावो ।
फॐ फ
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७- १७४ रे विधि ! मेरे साथ अनादिकाल से रहने पर भी तू थोड़ा सा भी मेरा स्वरूप ग्रहण कर लेने का लाभ नहीं ले पाया फिर साथ क्यों रहता । शायद तू यह सांचे कि साथ छोड़ने में कुछ हानि उठाना पड़े तो सुन जिसके ज्ञान में विश्व की यथार्थ व्यवस्था है ऐसे भगवा सर्व देव की आज्ञा है जो तेरा स्वरूप त्रिकाल में नष्ट न होगा चाहे साथ रह या न रह । ॐ क ८- २२१. पदार्थ चाहे भूत हों या भविष्यत् पर उनका आकार ( ग्रहण = जानना) तो केवलज्ञान में विद्यमान