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११-७५७. अज्ञानी के थाप नहीं अर्थात् अज्ञानी का न
महत्त्व है न प्रतिष्ठा है न विश्वास्यता है और न कहीं उसका जमाव है । अज्ञान ही महान् दुःख है। आत्मस्वरूप को श्रद्धापूर्वक देख कि सारा अज्ञान भाग जावेगा।
ॐ ॐ ॐ १२-१६१. सम्यकदृष्टि जीव के दृढ़ प्रतीति है-जो रागादिक भाव निश्चय से आत्मा के नहीं और पुद्गल के भी नहीं इसलिये रागादिभाव स्वयं असहाय होकर क्षीण हो जाते हैं।
१३-८८८. आत्मश्रद्धा से वश्चित मनुष्य कितने ही उपाय
करे सुख नहीं पा सकता, संसार को यातनावों से छूट नहीं सकता, कुछ भी हो पर अात्मश्रद्धा से च्युत कभी मत होओ।