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[ १६६ ] वह सार शरण तत्त्व सोचने बोलने करन को दशा में अलभ्य है सहज विकसित है यदि कुछ करना शेष कहा जा सकता है तेर यही कि क्रिया रूप उल्टा पुरुषार्थ मत करो, मुख न पर में हैं, न पराधीन है वह तो निज और निज के आधीन है, जानने के अतिरिक्त कुछ न करने रूप सीधा पुरुषार्थ करो।
॥ ॐ ॐ ५-४३६. मार्ग तो यह है कि जो तुमने समझा उसे अन्य
की चिन्ता से दूर होकर कर ही डालो, पर पदार्थ की उधेड़ बुन में क्यों समय खोते हो ? भगवान के ज्ञान में जो झलका वह होकर ही रहेगा तुम्हारे सोचने से क्या होता ? तुम तो अपने सम्बन्ध में यह सोचो कि मेरा स्वभाव ज्ञान दर्शन है सर्व से भिन्न है केवल का कर्ता भोक्ता हूँ।
॥ ॐ 卐 ६-५१८. मुख्य कव्य बुद्धिगत रागद्व परहित परिणमन
का अनुभव करना है, इसमें जब न रह सको तम तत्त्व चिन्तन में लग जायो इसमें जन न रह सको तब स्वाध्याय में लग जाओ, इसमें जब न रह सको तो सल्लमा. गम में चर्चा करो इससे भी विराम पाने पर समाज हित