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अध्याय - १
एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्थ्यः ॥३०॥
[ एकस्मिन् ] एक जीव में [ युगपत् ] एक साथ [ एकदीनि ] एक से लेकर [ आचतुर्थ्यः ] चार ज्ञान तक [भाज्यानि ] विभक्त करने योग्य हैं, अर्थात् हो सकते हैं।
From one up to four kinds of knowledge can be possessed simultaneously by a single soul.
मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥३१॥
[ मतिश्रुतावधयः] मति, श्रुत और अवधि यह तीन ज्ञान [विपर्ययश्च] विपर्यय भी होते हैं।
Sensory knowledge, scriptural knowledge and clairvoyance may also be erroneous knowledge.
सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥३२॥ [ यदृच्छोपलब्धेः ] अपनी इच्छा से चाहे जैसा ग्रहण करने के कारण [ सत् असतोः ] विद्यमान और अविद्यमान पदार्थों का [अविशेषात् ] भेदरूप ज्ञान (यथार्थ विवेक) न होने से [ उन्मत्तवत् ] पागल के ज्ञान की भाँति मिथ्यादृष्टि का ज्ञान विपरीत अर्थात् मिथ्याज्ञान ही होता है।
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