________________
अन्मति-तीर्थ में लेखन किया । उत्तरवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों ने जैन महाराष्ट्री' नामक भाषा में महाकाव्य, खंडकाव्य, चरित, कथाग्रंथ, उपदेशपर ग्रंथ लिखे । श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों ने मिलकर न्यायविषयक साहित्य एवं ललित साहित्य-अभिजात संस्कृत में प्रस्तुत किया । हालाकि उन्होंने संस्कृत को 'देववाणी' या 'गीर्वाणवाणी' का दर्जा नहीं दिया । संस्कृत गरिमा 'ज्ञानभाषा' तक सीमित रखी । दसवीं शताब्दी के आसपास जैनियों ने अपभ्रंश' भाषा में लिखा । यह गौरव की बात है कि आधुनिक कन्नड, गुजराती, राजस्थानी और हिंदी भाषा का पहला साहित्य जैन आचार्योंद्वारा लिखित है । आधुनिक काल में सभी के सभी भारतीय भाषाओं में एवं विश्व की प्रमुख भाषाओं में जैनविद्याविषयक लेखन-संशोधन चल रहा है । जर्मनी, फ्रान्स, इंग्लंड आदि देशों में जैन स्टडी सेंटर्स हैं । पिछले कई सालों से डेक्कन कॉलेज के 'अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑफ इंडियन स्टडिज्' के अंतर्गत प्राकृत की पढाई के लिए अमेरिकन विद्यार्थी आ रहे हैं।
जैनियों के प्राकृत कथासाहित्य में प्रतिबिंबित जनमानस बहुत ही लुभावना और अनुपमेय है । जैन साहित्य की विशेषताएँ, बलस्थान एवं जैन साहित्य की मर्यादाएँ - दोनों विषयों की अनुसंधान के क्षेत्र में हमेशा चर्चा की जाती है ।
भारतीय संस्कृती का पाँचवा महत्त्वपूर्ण अंग है - 'विविध कलाओं का आविष्कार' । संख्या से अत्यल्प होने के बावजूद आर्थिक सुबत्ता और आंतरिक धर्मप्रेम के कारण जैनियों ने भारतीय कलाक्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान किया है । जैन साहित्य में उल्लिखित वास्तुप्रकार जैनियों के कलासक्ति के परिचायक हैं । जैन कलाओं के आविष्कार गुंफा, गुंफासमूह, मूर्तिनिर्माण, चित्रकला, पांडुलिपियाँ एवं मंदिरशिल्पों के स्वरूप में आज भी विश्व के सामने उपस्थित हैं । राजस्थान,
अन्मति-तीर्थ मारवाड, सौराष्ट्र और आबू के मंदिरसमूह केवल जैन कला के नहीं बल्कि अनुपमेय भारतीय कलाविष्कारों के उत्कृष्ट नमूने हैं ।
जैन परंपरा की निवृत्तिगामिता एवं जीवनविन्मुखता का जिक्र जब जब किया जाता है, तब तब उसका प्रतिवाद करने के लिए जैन कलाओं के आविष्कार सामने उभरकर आते हैं । एक ओर आध्यात्मिक उन्नति, एकांतसाधना, दीक्षा, वैराग्य, संयम, तप और दूसरी ओर परम तत्त्व का साक्षात्कार करानेवाले सौंदर्यपूर्ण कलाविष्कार ! सच में जैन परंपरा सत्यं-शिवं-सुंदरम् की समन्वित आराधना है । 'दर्शन-ज्ञान-चारित्र'-मोक्षमार्ग का रत्नत्रय है तो 'सत्य-शिव-सुन्दर' जैन जीवनशैली का रत्नत्रय है । ये सब कलाविष्कार एक दृष्टि से भारतीयता के परिचायक हैं । तथापि अपनी पृथगात्मकता भी कायम रखते हैं ।
जैनविद्या का छठा पहलू है-"तौलनिक अध्ययन" । हमारी राष्ट्रीय प्रतिज्ञा 'विविधता में एकता' को सशक्त रूप से प्रकट करती है । कम से कम पाँच हजार सालों से भारतवर्ष में अनेक विचारधाराएँ कार्यरत हैं । आस्तिक, नास्तिक, क्रियावादी, अक्रियावादी, भौतिकवादी, सुखवादी, ईश्वरवादी, निरीश्वरवादी, बुद्धिप्रधान, कर्मप्रधान, भक्तिप्रधान - सैंकडों दृष्टिकोण प्रकट करनेवाले विचारवंत यहाँ उपस्थित हैं । उनमें कभी संघर्ष है तो कभी समन्वय । लेकिन इतिहास के प्रदीर्घ प्रवाह में शायद ही कभी हिंसा का प्रादुर्भाव यहाँ हुआ है । वैदिक, हिंदु, बौद्ध, सिक्ख, इस्लाम, ख्रिश्चन इन सब धर्मियों से जैन परंपरा का पाला पड़ा है। दूसरों के आचार-विचारों से कभी जैन प्रभावित हुए हैं तो कभी दूसरों को अपने विचारों से प्रभावित किया है । सभी क्रिया-प्रतिक्रियाओं का हेतुकारणसहित लेखाजोखा प्रस्तुत करना जैनविद्या का आखरी पहलू है ।