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सम्मति-तीर्थ
सम्मति-तीर्थ
क्र. ७ में बताया है कि, वैदिक, आजीवक आदि अन्य मतावलंबियों का मानना है, कि “कुछ कारण विशेषसे या अपने धर्म में हानि होती देख ‘धर्मसंस्थापनार्थाय' ऐसी मुक्त आत्मा फिर से जन्म लेती हैं। उन्हें अवतार कहते हैं।" इस तरह “धुणे पुव्वकडं कम्मं, णवं वाऽवि ण कुव्वति ।” ऐसे पूर्वसंचित द्रव्य कर्म से पुन: भावकर्म और भाव कर्म से पुनः द्रव्यकर्म यह चक्र रूक जाता है । यही 'मोक्षप्राप्ति'
त्याग नहीं करता तब तक उसे कर्माश्रव होता है और जब तक कर्माश्रव होता है तब तक वह अपने दुःखों का अन्त नहीं करता ।' इसलिए बुद्धिमान पुरुष को इन षट्जीवनिकाय जीवों को हर प्रकार से, सब युक्तियों से जानकर किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए । यही सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र है। 'मार्ग' अध्ययन में गाथा क्र. १०,११ में 'धर्म' का सार इस प्रकार बताया है- “किसी भी जीव की हिंसा मन-वचन-काया से नहीं करना यह 'अहिंसासिद्धान्त' जिसने जान लिया उसने सम्पूर्ण श्रुतज्ञान का सार पा लिया ।" और यही मोक्ष प्राप्ति है, यही 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' है । इस तरह भ. महावीर ने अखिल मानव जाति के आत्म कल्याण का मार्ग एवं धर्म बताया ।
इस धर्मपालन का अधिकारी सिर्फ गर्भज, कर्मभूमिज मनुष्य ही है । 'आदानीय' अध्ययन में गाथा क्र. १७, १८ के अनुसार चारों गतियों में मनुष्यगति प्राप्त होना दुर्लभ है । मनुष्यभव मिलकर भी सम्यक्त्वप्राप्ति, उसके योग्य अंत:करणपरिणति, धर्मप्राप्ति के अनुकूल लेश्याप्राप्ति, ये सारी बातें उत्तरोत्तर दुर्लभ है । यह सब जानकर कई ज्ञानी पुरुष, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् ज्ञानपूर्वक चारित्र पालन या संयम पालन कर के पूर्व संचित कर्मों का सामना कर के उन्हें पराजित करते हैं और नवीन कर्मबन्ध नहीं करते, तब आत्मा सर्वथा निष्कर्म होकर अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है।
'आदानीय' अध्ययन में गाथा क्र. २०-२२ के अनुसार परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त, स्व-स्वरूप प्राप्त आत्मा मोक्षप्राप्ति के बाद फिर से जन्म नहीं लेती । क्योंकि जन्म लेने का या संसार का कर्मरूप कारण ही पूर्णत: नष्ट होने से जन्म-मरणरूप संसार भी नष्ट हो जाता है । जब कि 'आदानीय' अध्ययन में गाथा
इस प्रकार के संयमपालन को महावीर ने 'शल्यकर्तन' कहा है । भवरोग से ग्रसित सभी प्राणियों को रोगमुक्ति के लिए महावीर जैसे कुशल वैद्य ने यह 'शल्यकर्तन' अर्थात् संयम मार्ग का उपदेश दिया है । यही श्रुत-चारित्र धर्म है, जिसमें कषाय, विषयसेवन, कामभोगासक्ति, सुखाभिलाषा, प्रमाद इत्यादि का पूरा परहेज करना पडता है।
'सूत्रकृतांग' में चारित्र धर्म-पालन का भी पूरा ब्यौरेवार वर्णन मिलता है, जिसके आधार से उत्तरवर्ति आचार्यों ने दशवैकालिक, उत्तराध्ययन जैसे साधुसाध्वियों के आचार-प्रधान ग्रन्थों की रचना की होगी ऐसा अनुमान किया जा सकता है।
भ, महावीर ने अपनी सत्यप्रज्ञा से समीक्षा करके हमें जो स्व-पर कल्याणकारी अहिंसामूलक धर्म एवं मार्गरूपी रत्न सौंपे हैं, वे आज भी सूत्रकृतांगादि प्राचीन आगमों के रत्न करंडकों में सुरक्षित है । इस हमारी अनमोल धरोहर को हमें हृदयंगम करना चाहिए । यथाशक्ति हमें यह जनमानस तक पहुँचाने का प्रयास करना चाहिए। तभी हम महावीर प्ररूपित धर्म एवं मार्ग के प्रति सच्चा न्याय कर पायेंगे।