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-सन्मति-तीर्थ
क्रान्ति की, उसकी गहरी छाप जन-मानसपर पडी । इन विचारों ने श्रमण, माहण, अन्यतीर्थी आदि सभी को भगवान महावीर की ओर आकृष्ट किया । अनायास ऐसा कल्याणकारी सत्यधर्म समझानेवाले इस महामानव को जानने की इच्छा इन सबको
= सन्मति-तीर्थ (१५) सूत्रकृतांग-लेखमाला : जैन जागृति मासिकपत्रिका
(लेखांक १) 'वीरत्थुई' के अन्तरंग में
व्याख्यान : डॉ. नलिनी जोशी
शब्दांकन : सौ. चंदा समदडिया जैन दर्शन में प्रत्यक्ष महावीर वाणी 'द्वादशांगी' में सूत्रकृतांग दूसरे स्थानपर है । दो श्रुतस्कन्धों में विभाजित इस अंग-आगम का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन अर्धमागधी का दुर्लभ नमुना माना जाता है । महावीर के समकालीन विविध दार्शनिक मतों का अर्थात् स्व-पर-सिद्धान्तों का उल्लेख एवं विवेचन सूत्रकृतांग में किया गया है । इसलिए ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह अंग-आगम बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
सूत्रकृतांग का छठा अध्ययन 'वीरस्तुति' है । भक्तामर-स्तोत्र, कल्याण मन्दिर-स्तोत्र की तरह यह स्तुति काव्य भी आद्य शब्द से अर्थात् 'पुच्छिसु णं' नामसे जाना जाता है । हर साहित्य-विधा की तरह स्तुति, स्तोत्र इस विधा का जन्मस्थान भी आगम में, आचार्य सुधर्मा द्वारा सर्वप्रथम विरचित 'वीरत्थुई' में मिलता है । 'वीर' शब्द यहाँ प्रधानतया भगवान महावीर वाचक है।
जब ब्राह्मण या वैदिक परम्परा में महाहिंसात्मक यज्ञादि का प्रचुर मात्रा में प्रवचन था, ब्राह्मण वर्ण की मनमानी, धर्म के नामपर लोगों को सरे आम लूटना, इन सब बातों से मानव-समाज पीडित था । ऐसी परिस्थिति में भगवान महावीर ने सभी प्राणीमात्रों को शान्ति एवं सुकून देनेवाले अहिंसा एवं अनेकान्त धर्म की प्ररूपणा की । सदैव सत्य-प्रज्ञा से समीक्षा कर के जो धर्म कहा, जो वैचारिक
जम्बूस्वामी महावीर के द्वितीय पट्टधर थे। जिन्होंने भगवान महावीर को देखा या सुना नहीं था । उन्हें भी ऐसे युगपुरुष को जानने की जिज्ञासा थी ही, तो उन्होंने इन सभी जिज्ञासुओं की ओर से अपने गुरू आचार्य सुधर्मा से भगवान महावीर के बारे में पूछा । आचार्य सुधर्मा ही एक ऐसे अधिकारी व्यक्ति थे कि जो महावीर को यथातथ्य जानते थे। आचार्य सुधर्मा भगवान महावीर के पाँचवें गणधर एवं शिष्य कि जिन्होंने भगवान महावीर के पास दीक्षित होकर लगातार तीस वर्षतक उनके पादमूलों में बैठकर विविध अनुभवों को संजोया, ज्ञानकणों का अर्जन किया। भगवान महावीर की अध्यात्म साधना को नजदीकी से देखा था । केवलज्ञानी प्रभु महावीर की हर साँस से वाकिफ थे आचार्य सुधर्मा । इसलिए सम्पूर्ण महावीरव्यक्ति-दर्शन केवल सुधर्मा ही यथाश्रुत और यथातथ्य करा सकते थे । यह सब ध्यान में लेकर प्रखर प्रज्ञा के धनी जम्बूस्वामी आचार्य सुधर्मा से भगवान महावीर के आत्मिक, आन्तरिक गुण-ज्ञान, दर्शन, शील आदि के बारे में पूछते हैं । महावीर के शरीरांगोपांग, माता-पिता, नगरी या पारिवारिक सम्बन्धों के बारे में नहीं ।
यहाँ वीर-स्तुति में महावीर को णायसुय, णायपुत्र, कासव, वद्धमाण आदि कुल एवं गोत्र निर्देशक नामों से सम्बोधित किया है । 'महावीर' नामोल्लेख एक बार भी नहीं है । सम्भव है 'महावीर' का यह नामाभिधान उत्तरवर्ती आचार्यों ने किया हो ।