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अन्मति-तीर्थ (७) जलसम्बन्धी विचार (वैदिक और जैन संदर्भ में)
- मनीषा कुलकर्णी वैदिकों के वैष्णव और शैव इन पन्थों में यह दृढ मान्यता है कि पानी से बाह्य परिसर, शरीर एवं मन की शुद्धि होती है । गणपति-पूजन के पहले पूजास्थल, पूजासाधन आदि की शुद्धि पानी प्रोक्षण के द्वारा करते हैं । उसके लिए यह मन्त्र प्रयुक्त होता है -
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा ।
यद् स्मरेत् पुंडरिकाक्षं सबाह्याभ्यंतरः शुचिः ।। इसके बाद वरुणपूजा एवं कलशपूजा करते हैं । इसमें वैदिकादि कहते हैं कि
।। वरुणाय नमः ।। कलशाय नमः ।।
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिंधु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ।। वरुणपूजा लगभग सभी धार्मिक विधियों में करने का विधान है । वेदों के अनुसार वरुणदेवता ऋतसम्बन्धी एवं जलसम्बन्धी देवता है । वरुण के आधार से सब जगत् टिका है । वैष्णव लोग विहार करते समय हमेशा कमंडलु का पानी डाल के भूमिशुद्धि करते हैं । वैष्णव लोग सीधा पानी डालते हैं तो शैव लोग समांतर पानी डालते हैं । अस्तु !
जैनशास्त्र के अनुसार पानी जड पंचमहाभूत नहीं है । पानी के शरीरवाले जीवों को वे अप्कायिक जीव कहते हैं । उपरोक्त रुढियों का कठोर खंडन जैनग्रन्थों में पाया जाता है । 'उदगेण जे सिद्धिं उदाहरंति'- यह गाथा सूत्रकृतांग (१) के सातवें अध्ययन की चौदहवीं गाथा है । उसमें कहा है कि, 'पानी छिडकने से अगर
मन्मति-तीर्थ सिद्धि या लब्धि प्राप्त होती तो मछलियाँ आदि जलचर जीव पूरी उम्रभर पानी में होने के कारण कब के मोक्षगामी हुए होते ।'
जैन कहते हैं कि रूढ मान्यताओं को छोडकर तर्काधिष्ठित रहो । बुद्धि से सब की जाँच, विवेक करों और सिद्धशिलातक पहुँचों ।
वैदिक, वैष्णव आदि सब आचमन, संकल्प, स्नान, त्रिकालसन्ध्या आदि में पानी का उपयोग काफी मात्रा में करते हैं । पूजा समाप्ति में वे कहते हैं कि -
अकालमृत्युहरणम् सर्वव्याधिविनाशनम्
विष्णु/शिव पादोदकं तीर्थं जठरे धारयाम्यहम् ।। नदीस्नान या समुद्रस्नान की बात तो दूर ही है, जैनियों के साधुआचार में अस्नानव्रत को ही सर्वाधिक स्थान दिया है । तालाब, सरोवर, नदी, समुद्र आदि से सम्बन्धित सामाजिक उत्सवों का भी जैनियों में प्रचलन नहीं है । सूत्रकृतांग आगम में स्नानद्वारा शुद्धि की मान्यता को करारा जवाब दिया है । शरीर शुद्धि के बदले चित्तशुद्धि का महत्त्व खास तौरपर बताया है । जल का अपव्यय करने को प्राणातिपात याने हिंसा ही समझा है ।