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पुरुषार्थसिद्ध्युपाय उपलब्धिसुगतिसाधनसमाधिसारस्य भूयसोऽभ्यासात् । स्वगुरोः शिष्येण शिरो न कर्तनीयं सुधर्ममभिलषिता ॥ (87)
अन्वयार्थ - (भूयसः) बहुत से (अभ्यासात्) अभ्यास से (उपलब्धिसुगतिसाधनसमाधिसारस्य) सुगति का कारणभूत समाधि के सारतत्त्व को प्राप्त करने वाले (स्वगुरोः) अपने गुरु का (शिरः) शिर (सुधर्मम् अभिलषिता) श्रेष्ठ धर्म के चाहने वाले (शिष्येण) शिष्य के द्वारा (न कर्तनीयं) नहीं काटना चाहिये।
87. A disciple, desirous of piety, should not cut off the head of his own preceptor who, through constant practice, has developed concentration that is instrumental in achieving a superior state of existence.
धनलवपिपासितानां विनेयविश्वासनाय दर्शयताम् । झटितिघटचटकमोक्षं श्रद्धेयं नैव खारपटिकानाम् ॥
(88)
अन्वयार्थ - (धनलवपिपासितानां) धन के प्यासे (विनेयविश्वासनाय) शिष्यों को विश्वास दिलाने के लिये (झटितिघटचटकमोक्षं) शीघ्र ही घट के फूटने से उड़ने वाली चिड़िया के समान मोक्ष को (दर्शयताम् ) दिखाने वाले (खारपटिकानाम् ) धूर्त-ढोंगी खारपटिकों के मत को (नैव श्रद्धेयं) नहीं मानना चाहिये।
88. Do not believe in the doctrine of the Khārpatikas that postulates 'break the pot (the body) for immediate salvation'. Impelled by their thirst for small riches, they induce their disciples into the trap of such a doctrine.
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