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पुरुषार्थसिद्धयुपाय आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥
(67)
अन्वयार्थ - (आमासु) कच्ची, (पक्वासु अपि) पकी हुई भी, (विपच्यमानासु अपि) पकती हुई भी (मांसपेशीषु ) मांस की डलियों में (तज्जातीनां) उसी जाति के (निगोतानाम् ) निगोद जीव-राशियों की (सातत्येन) निरन्तर ही ( उत्पादः) उत्पत्ति होती रहती है।
67. Subtle, unevolved, spontaneously-born living beings (nigoda jivas) of the same genus originate constantly in pieces of flesh, whether raw, cooked, or being cooked.
आमां वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ॥ (68)
अन्वयार्थ - (यः) जो (आमा) कच्ची (वा) अथवा (पक्वां) पकाई हुई (पिशितपेशीम् ) मांस की डली को (खादति) खाता है (वा) अथवा (स्पृशति ) स्पर्श करता है (सः) वह (बहुजीवकोटीनाम् ) अनन्त जीव-राशियों के (सततनिचितं) निरन्तर संचित हुए (पिण्डं) पिण्ड को (निहन्ति ) नष्ट कर देता है।
68. One who eats raw or cooked pieces of flesh, or touches them, causes the destruction of large clusters of subtle, unevolved, spontaneously-born living beings (nigoda jivas) constantly gathering together.
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