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पुरुषार्थसिद्धयुपाय
The soul is pure but looks tainted to the ignorant Achārya Kundkund's Samayasāra:
जह फलिहमणि विसुद्धो ण सयं परिणमदि रागमादीहिं। रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहि दव्वेहिं॥ (8-42-278)
एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमदि रागमादीहिं। रागिज्जदि अण्णेहिं दु सो रागदीहि दोसेहिं॥
(8-43-279)
जैसे स्फटिक मणि विशुद्ध है, वह स्वयं लाल आदि वर्ण रूप से परिणत नहीं होती; परन्तु वह अन्य लाल आदि वर्ण वाले द्रव्यों से लाल आदि रूप परिणमन करती है। इसी प्रकार ज्ञानी (आत्मा स्वयं तो) शुद्ध है। वह रागादि रूप स्वयं परिणमन नहीं करता; परन्तु वह अन्य रागादि दोषों से राग रूप परिणमन करता
Just as a crystal, which is pure, does not alter its colour by itself, but when in proximity with coloured (like red) objects, seems to acquire red tinge, similarly the knowledgeable Self is pure, and does not acquire modifications like attachment by itself. But due to dispositions like attachment, its purity gets tainted.
विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् ॥
(15)
अन्वयार्थ - (विपरीताभिनिवेशं) विपरीत श्रद्धान को (निरस्य) दूर कर (निजतत्त्वम्) अपने स्वरूप को (सम्यक् व्यवस्य) अच्छी तरह समझ कर
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