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________________ पुरुषार्थसिद्धयुपाय moral virtues such as forbearance and consequently leads to effective stoppage of karmas. Reflection is mentioned in the middle for the sake of both. He who practises reflection in this way is enabled to practise the moral virtues and also subdue the afflictions. Jain, S.A., Reality, p. 245-250. (206) क्षुत्तृष्णा हिममुष्णं नग्नत्वं याचनारतिरलाभः । दंशो मशकादीनामाक्रोशो व्याधिदुःखमङ्गमलम् ॥ स्पर्शश्च तृणादीनामज्ञानमदर्शनं तथा प्रज्ञा । सत्कारपुरस्कारः शय्या चर्या वधो निषद्या स्त्री ॥ द्वाविंशतिरप्येते परिषोढव्याः परीषहाः सततम् । संक्लेशमुक्तमनसा संक्लेशनिमित्तभीतेन ॥ (207) (208) अन्वयार्थ - (क्षुत् ) क्षुधा, (तृष्णा) प्यास, (हिमम्) शीत, ( उष्णम् ) गरमी, (नग्नत्वं) नग्नता, (याचना) मांगना, (अरति) किसी अनिष्ट वस्तु से अरुचि, (अलाभ) आहारादि का लाभ नहीं होना, (दंशो मशकादीनाम् ) मच्छर, ततैया, सर्प आदि द्वारा काटना, (आक्रोशः) कुवचन सुन कर क्रोध करना, (व्याधि दुःखम् ) शरीर में किसी रोग के होने से दु:खी होना, (अङ्गमलम् ) शरीर में धूल-मिट्टी लिपट जाये, मल और पसीना आ जाये, (स्पर्शश्च तृणादीनाम् ) तिनका, कांटा, सुईं आदि चुभ जाये, (अज्ञानं ) ज्ञान नहीं होना, (अदर्शनं ) वस्तु के स्वरूप का दर्शन नहीं होना, (प्रज्ञा) प्रज्ञा, (सत्कारपुरस्कारः) सत्कार-पुरस्कार, (शय्या) शयन, (चर्या) गमन, (वधः) वध, (निषद्या) बैठने की स्थिति, (स्त्री) स्त्री, (एते द्वाविंशति अपि परिषोढव्याः परीषहाः) ये बाईस परीषह भी सहन करने योग्य हैं (सततं) निरन्तर (संक्लेशमुक्तमनसा) क्लेश रहित मन से, (संक्लेशनिमित्तभीतेन) संक्लेश का कारण मिलने पर। 155
SR No.009868
Book TitlePurushartha Siddhupaya
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVijay K Jain
PublisherVikalp
Publication Year2012
Total Pages210
LanguageSanskrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size8 MB
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