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पुरुषार्थसिद्ध्युपाय 137. Taking a resolve not to participate in activities beyond set limits in directions, like east, and demarcating boundaries with well-known reference objects, one should take the vow of abstinence with regard to directions (dikurata).
इति नियमितदिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्य । सकलासंयमविरहाद्भवत्यहिंसाव्रतं पूर्णम् ॥
(138)
अन्वयार्थ - (इति) इस प्रकार (यः) जो (नियमित दिग्भागे) नियत दिशाओं के विभागों में (प्रवर्तते ) प्रवर्तन करता है (तस्य) उस पुरुष के (ततः बहिः) उस मर्यादित क्षेत्र से बाहर (सकलासंयमविरहात् ) समस्त ही असंयम का अभाव होने से (पूर्णम् अहिंसाव्रतं भवति) पूर्ण अहिंसाव्रत होता है।
138. A person who thus confines his activities within the set boundaries, since there is total absence of indulgence in the excluded region, follows the vow of complete ahimsā there.
तत्रापि च परिमाणं ग्रामापणभवनपाटकादीनाम् । प्रविधाय नियतकालं करणीयं विरमणं देशात् ॥
(139)
अन्वयार्थ - (च तत्रापि) और उस दिग्व्रत में भी (ग्रामापणभवनपाटकादीनाम् ) ग्राम, बाजार, मन्दिर, मुहल्ला आदि के कुछ हिस्से की (परिमाणं) मर्यादा को (नियतकालं प्रविधाय) किसी समय विशेष पर्यन्त धारण करके (देशात् विरमणं करणीयं) देश से विरक्ति कर लेना चाहिये।
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