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पुरुषार्थसिद्धयुपाय अन्वयार्थ - ( यस्मात् ) जिस (बहिरङ्गादपि सङ्गात् ) बाह्य परिग्रह से भी (अनुचितः असंयमः) अनुचित असंयम (प्रभवति) उत्पन्न होता है (तं अचित्तं वा सचित्तं वा) उस अचित्त अथवा सचित्त (अशेषं) समस्त परिग्रह को (परिवर्जयेत् ) छोड़ देना चाहिये।
127. And one should turn away from all external possessions, non-living or living, as even these external possessions are the cause of improper indulgence (lack of self-restraint).
योऽपि न शक्यस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादि । सोऽपि तनूकरणीयः निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वम् ॥
(128)
अन्वयार्थ - (यः अपि) जो कोई भी (धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादि) धन-धान्य, मनुष्य, घर, द्रव्य आदि (त्यक्तुं) छोड़ने के लिये (न शक्यः) नहीं समर्थ है (सः अपि) वह परिग्रह भी (तनूकरणीयः) कम करना चाहिये ( यतः) क्योंकि (तत्त्वम् निवृत्तिरूपं) तत्त्व का रूप निवृत्तिस्वरूप ही है।
128. And if one is not able to wholly renounce external possessions like land and cattle, servants, houses, and wealth, these should be reduced to the minimum, as renunciation is truly the nature of the Self.
रात्रौ भुञ्जानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा । हिंसाविरतैस्तस्मात् त्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि ॥
(129)
अन्वयार्थ - (यस्मात् ) क्योंकि (रात्रौ भुनानानां) रात्रि में भोजन करने वाले के (अनिवारिता हिंसा भवति) अनिवार्य हिंसा होती है (तस्मात् ) इसलिये
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