________________
मृगापुत्र
नगर है। उस नगरके राज्यासन पर बलभद्र नामका एक राजा राज्य करता था। उसकी प्रियंवदा पटरानीका नाम मृगा था। इस दम्पतीसे बलश्री नामके एक कुमारने जन्म लिया था। वे मृगापुत्रके नामसे प्रख्यात थे। वे मातापिताको अत्यन्त प्रिय थे। उन युवराजने गृहस्था-श्रममें रहते हुए भी संयतिके गुणोंको प्राप्त किया था, इसलिए वे दमीश्वर अर्थात् यतियोंमें अग्रेसर गिने जाने योग्य थे। वे मृगापुत्र शिखरबंद आनन्दकारी प्रासादमें अपनी प्राणप्रिया सहित दोगुंदक देवताकी भाँति विलास करते थे। वे निरंतर प्रमुदित मनसे रहते थे। प्रासादका दीवानखाना चंद्रकांतादि मणियों तथा विविध रत्नोंसे जडित था। एक दिन वे कुमार अपने झरोखेमें बैठे हुए थे। वहाँसे नगरका परिपूर्ण निरीक्षण होता था। जहाँ चार राजमार्ग मिलते थे ऐसे चौकमें उनकी दृष्टि वहाँ पडी कि जहाँ तीन राजमार्ग मिलते थे। वहाँ उन्होंने महातप, महानियम, महासंयम, महाशील, और महागुणोंके धामरूप एक शान्त तपस्वी साधुको देखा। ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है त्यों-त्यों मृगापुत्र उस मुनिको खूब गौरसे देख रहे हैं।
इस निरीक्षणसे वे इस प्रकार बोले-“जान पडता है कि ऐसा रूप मैंने कहीं देखा है।" और यों बोलते-बोलते वे कुमार शुभ परिणामको प्राप्त हुए। मोहपट दूर हुआ और वे उपशमताको प्राप्त हुए। जातिस्मृतिज्ञान प्रकाशित हुआ। पूर्व-जातिकी स्मृति उत्पन्न होनेसे महाऋद्धिके भोक्ता उन मृगापुत्रको पूर्वके चारित्रका स्मरण भी हो आया। शीघ्रमेव वे विषयमें अनासक्त हुए और संयममें आसक्त हुए। मातापिताके पास आकर वे बोले, "पूर्व भवमें मैंने पाँच महाव्रत सुने थे, नरकमें जो अनन्त दुःख हैं वे भी मैंने सुने थे, तिर्यंचमें जो अनंत दुःख हैं वे भी मैंने सुने थे। उन अनन्त दुःखोंसे खिन्न होकर मैं उनसे निवृत्त होनेका अभिलाषी हुआ हूँ। संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिए हे गुरुजनों! मुझे उन पाँच महाव्रतोंको धारण करनेकी अनुज्ञा दीजिये।"
कुमारके निवृत्तिपूर्ण वचन सुनकर मातापिताने उन्हें भोग भोगनेका आमंत्रण दिया। आमंत्रण-वचनसे खिन्न होकर मृगापुत्र यों कहते हैं-"अहो मात ! और अहो तात ! जिन भोगोंका आप मुझे आमंत्रण देते हैं उन भोगोंको मैं भोग चुका हूँ। वे भोग विषफल-किंपाक वृक्षके फलके समान है, भोगनेके बाद कडवे विपाकको देते हैं और सदैव दुःखोत्पत्तिके कारण हैं। यह शरीर अनित्य और केवल अशुचिमय है, अशुचिसे उत्पन्न हुआ है, यह जीवका अशाश्वत वास है, और अनन्त दु:खोंका हेतु है। यह शरीर रोग, जरा और क्लेशादिका भाजन है, इस शरीरमें मैं कैसे रति करूँ ? फिर ऐसा कोई नियम नहीं है कि यह शरीर बचपनमें छोडना है या बुढापेमें। यह शरीर पानीके फेनके बुलबुले जैसा है, ऐसे शरीरमें स्नेह करना कैसे योग्य हो सकता है? मनुष्यभवमें भी यह शरीर कोढ, ज्वर आदि व्याधियोंसे तथा जरा-मरणसे ग्रसित होना सम्भाव्य है। इससे मैं कैसे प्रेम करूँ?
जन्मका दु:ख, जराका दु:ख, रोगका दुःख, मृत्युका दुःख, इस तरह केवल दुःखके हेतु संसारमें है। भूमि, क्षेत्र, आवास, कंचन, कुटुम्ब, पुत्र, प्रमदा, बांधव, इन सबको छोडकर मात्र