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भावनाबोध अशुचिभावना
अपने शरीरको विशेष आश्चर्यकारी ढंगसे सजाकर वे राजसभामें आकर सिंहासनपर बैठे आसपास समर्थ मंत्री, सुभट विद्वान और अन्य सभासद अपने-अपने आसनोंपर बैठ गये थे राजेश्वर चमरछत्रसे और खमा खमाके उद्गारोंसे विशेष शोभित तथा सत्कारित हो रहे थे । वहाँ वे देवता फिर विप्रके रूपमें आये । अद्भुत रूपवर्णसे आनन्दित होनेके बदले मानों खिन्न हुए हों ऐसे ढंगसे उन्होंने सिर हिलाया।
चक्रवर्तीने पूछा, “अहो ब्राह्मणों! गत समयकी अपेक्षा इस समय आपने और ही तरहसे सिर हिलाया है, इसका क्या कारण है सो मुझे बतायें।" अवधिज्ञानके अनुसार विप्रोंने कहा, "हे महाराजा ! उस रूपमें और इस रूपमें भूमि - आकाशका फर्क पड़ गया है।" चक्रवर्तीने उसे स्पष्ट समझाने के लिए कहा । ब्राह्मणोंने कहा, “अधिराज ! पहले आपकी कोमल काया अमृत-तुल्य थी, इस समय विषतुल्य है। इसलिए जब अमृततुल्य अंग था तब हमें आनन्द हुआ था। इस समय विषतुल्य है अतः हमें खेद हुआ है। हम जो कहते हैं उस बातको सिद्ध करना हो तो आप अभी तांबूल थूकें; तत्काल उस पर मक्षिका बैठेगी और परधामको प्राप्त होगी ।"
सनत्कुमारने यह परीक्षा की तो सत्य सिद्ध हुई। पूर्व कर्मके पापके भागमें इस कायाके मदका मिश्रण होनेसे इस चक्रवर्तीकी काया विषमय हो गयी थी। विनाशी और अशुचिमय कायाका ऐसा प्रपंच देखकर सनत्कुमारके अंतःकरणमें वैराग्य उत्पन्न हुआ। यह संसार सर्वथा त्याग करने योग्य है। ऐसीकी ऐसी अशुचि स्त्री, पुत्र, मित्र आदिके शरीरमें है यह सब मोहमान करने योग्य नहीं है, यों कहकर वे छः खण्डकी प्रभुताका त्याग करके चल निकले । वे जब साधुरूपमें विचरते थे तब महारोग उत्पन्न हुआ। उनके सत्यत्वकी परीक्षा लेनेके लिए कोई देव वहाँ वैद्यके रूपमें आया। साधुको कहा, "मैं बहुत कुशल राजवैद्य हूँ, आपकी काया रोगका भोग बनी हुई है; यदि इच्छा हो तो तत्काल मैं उस रोगको दूर कर दूँ।” साधु बोले, “हे वैद्य ! कर्मरूपी रोग महोन्मत्त है; इस रोगको दूर करनेकी यदि आपकी समर्थता हो तो भले मेरा यह रोग दूर करें। यह समर्थता न हो तो यह रोग भले रहे।” देवताने कहा, "इस रोगको दूर करनेकी समर्थता तो मैं नहीं रखता।" बादमें साधुने अपनी लब्धिके परिपूर्ण बलसे धूकवाली अंगुलि करके उसे रोगपर लगाया कि तत्काल वह रोग नष्ट हो गया; और काया फिर जैसी थी वैसी हो गयी। बादमें उस समय देवने अपना स्वरूप प्रगट किया; धन्यवाद देकर, वंदन करके वह अपने स्थानको चला गया।
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प्रमाणशिक्षा-रक्तपित्त जैसे सदैव खून पीपसे खदबदाते हुए महारोगकी उत्पत्ति जिस कायामें है; पलभरमें विनष्ट हो जानेका जिसका स्वभाव है जिसके प्रत्येक रोममें पौने दो दो रोगोंका निवास है; वैसे साढे तीन करोड रोमोंसे वह भरी होनेसे करोडों रोगोंका वह भंडार है, ऐसा विवेकसे सिद्ध है। अन्नादिकी न्यूनाधिकतासे वह प्रत्येक रोग जिस कायामें प्रगट होता है; मल, मूत्र, विष्ठा, हड्डी, मांस, पीप और श्लेष्मसे जिसका ढाँचा टिका हुआ है; मात्र त्वचासे जिसकी मनोहरता है; उस कायाका मोह सचमुच ! विभ्रम ही है! सनत्कुमारने जिसका लेशमात्र मान किया वह भी जिससे सहन नहीं हुआ उस कायामें अहो पामर ! तू क्या मोह करता है ? 'यह मोह मंगलदायक नहीं है।'
ऐसा होनेपर भी आगे चलकर मनुष्यदेहको सर्व - देहोत्तम कहना पडेगा । इससे सिद्धगतिकी
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