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Shri Ashtapad Maha Tirth
अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी. केवली, विक्रिया ऋद्धिधारी, वादी श्रावक श्राविका परिवार, आयु, बाल्यावस्था, राज्य काल, छद्मस्थ अवस्था, केवली अवस्था आदि का सारगर्भित विवरण इसमें प्राप्त होता है।
१२. महापुरुषचरित
इस ग्रन्थ के रचयिता मेरुतुंग हैं । ग्रन्थ पाँच सर्गों में विभक्त है। जिनमें क्रमशः ऋषभदेव, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर प्रभु के जीवन चरित्र का उल्लेख है। प्रस्तुत ग्रन्थ पर एक टीका भी है, जो संभवतः स्वोपज्ञ है । उसमें उक्त ग्रन्थ को 'काव्योपदेशशतक' या 'धर्मोपदेशशतक' भी कहा गया है। १३. अन्य चरित्र
वडगच्छीय हरिभद्रसूरि ने 'चौबीस तीर्थंकर चरित्र की रचना की, जो वर्तमान में अनुपलब्ध है। नवांगी टीकाकार अभयदेव के शिष्य वर्धमान सूरि ने संवत् १९६० में 'आदिनाथ चरित्र' का निर्माण किया। बृहद्गच्छीय हेमचन्द्रसूरि ने 'नाभिनेमि द्विसंधानकाव्य' की रचना की हेमविजयजी का 'ऋषभशतक' भी उपलब्ध होता है। आचार्य हेमचन्द्र के सुशिष्य रामचन्द्रसूरि ने 'युगादिदेव द्वात्रिंशिका' ग्रन्थ का निर्माण किया ।
इसी प्रकार अज्ञात लेखक के 'आदिदेवस्तव', 'नाभिस्तव' आदि ऋषभदेव की संस्तुति के रूप में साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। कितने ही ग्रन्थ अप्रकाशित हैं जो केवल भण्डारों में हस्तलिखित प्रतियों के रूप में उपलब्ध होते हैं और कितने ही प्रकाशित हो चुके हैं।
१४. भरत बाहुबलिमहाकाव्यम् "
प्रस्तुत ग्रन्थ के रचयिता श्री पूज्यकुशलगणी हैं। ये तपागच्छ के विजयसेनसूरि के प्रशिष्य और पण्डित सोमकुशलगणी के शिष्य थे । प्रस्तुत काव्य का रचना समय सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में है ।
पञ्जिकाकार ने इसे महाकाव्य कहा है किन्तु इसमें जीवन का सर्वांगीण चित्रण नहीं हुआ है। केवल भरत बाहुबली के युद्ध का ही प्रसंग है अतः यह एकार्थ काव्य या काव्य है चक्रवर्ती भरत छह खण्ड विजय के पश्चात् राजधानी अयोध्या में प्रवेश करते हैं किन्तु उनका चक्र आयुधशाला में प्रवेश नहीं करता । उसका रहस्य ज्ञात होने पर भरत बाहुबली के पास दूत प्रेषित करते हैं और दोनों भाई युद्धक्षेत्र में मिलते हैं बारह वर्ष तक युद्ध होता है अन्त में बाहुबली भगवान् ऋषभदेव का पथ अपनाते हैं और सम्राट भरत ते भी अनासक्तिमय जीवन जीते हैं और केवलज्ञान प्राप्त करते हैं । कवि ने कमनीय कल्पना से प्रस्तुत प्रसंग को खूब ही सजाया है, संवारा है। वर्णन शैली अत्यधिक रोचक है जिससे पाठक कहीं पर भी ऊबता नहीं है। इसमें अठारह सर्ग हैं । अन्तिम श्लोक का छन्द मुख्य छन्द से पृथक् है । शान्त रस के साथ ही श्रृंगार रस और वीर रस की प्रधानता है ।
भाषा शुद्ध संस्कृत है जो सरस, सरल और लालित्यपूर्ण है। भाषा में जटिलता नहीं, सहजता है। मुख्य रूप से इसमें प्रसाद और लालित्य गुण आया है पर कहीं-कहीं ओज गुण भी आया है। १५. पद्मानन्द महाकाव्य ५५
श्री अमरचन्द्रसूरि विरचित 'पद्मानन्द महाकाव्य' उन्नीस सर्गों में विभक्त है। इसका दूसरा नाम 'जिनेन्द्र चरित्र' भी है। इस सम्पूर्ण काव्य में आदि तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव के जीवन चरित्र का वर्णन किया गया है। इसकी रचना कवि ने कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि कृत 'त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र' के आधार पर की है। यह काव्य संस्कृत वाङ्मय की अमूल्य निधि है ।
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अनुवादक - मुनि दुलहराज, प्रकाशक- जैन- विश्व भारती लाडनुं ( राजस्थान), सन् १९७४
श्री अमरचन्द सूरि विरचित, तेरहवीं चौदहवीं शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य में उद्धत परिचय, पृ० ३०१-३२२,
लेखक - डॉ. श्यामशंकर दीक्षित, प्रकाशक- मलिक एण्ड कम्पनी, चौड़ा रास्ता, जयपुर ३ सन् १९६९ ।
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Rushabhdev Ek Parishilan