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अमात्य मारीच ने कहा- "देव! कैलाश पर्वत पर एक मुनिराज प्रतिमा योग से विराजमान हैं। वे घोर तपस्वी प्रतीत होते हैं इसीलिए यह विमान उनको अतिक्रमण नहीं कर सका है। दशानन ने उस पर्वत पर उत्तर मुनिराज के दर्शन किये। किन्तु वह देखते ही पहचान गया कि यह वाली है। उसके साथ अपने पूर्व संघर्ष का स्मरण करके वह बड़े क्रोध में बोला- अरे दुर्बुद्धि ! तू बड़ा तप कर रहा है कि अभिमान से मेरा विमान रोक लिया, मैं तेरे इस अहंकार को अभी नष्ट किये देता हूँ तू जिस कैलाश पर्वत पर बैठा है, उसे उखाड़ कर तेरे ही साथ अभी समुद्र में फेंकता हूँ ।" यह कहकर दशानन ने ज्योंही अपनी भुजाओं से विद्या - बल की सहायता से कैलाश को उठाना प्रारम्भ किया, मुनिराज वाली ने अवधिज्ञान से दशानन के दस दृष्कृत्य को जान लिया। तब वे विचार करने लगे
कारितं भरतेनेदं जिनायगतनमूत्तमम् । सर्वरत्नमयं तु बहुरुप विराजितम् ।। प्रत्यहं भक्तिसंयुक्तैः कृतपूजं सुरासुरैः । मा विनाशि चलत्यस्मिन् पर्वते भिन्न पर्वणि ।।
Shri Ashtapad Maha Tirth
- पद्मपुराण ९।१४७- १४८
अर्थात् भरत चक्रवर्ती ने ये नाना प्रकार के सर्व रत्नमयी ऊँचे-ऊँचे जिनमन्दिर बनवाये हैं। भक्ति से भरे हुए सुर और असुर प्रतिदिन इनकी पूजा करते हैं। अतः इस पर्वत के विचलित हो जानेपर कहीं ये जिनमन्दिर नष्ट न हो जायें ।
ऐसा विचार कर मुनिराज ने पर्वत को अपने पैर के अंगूठे से दबा दिया। दशानन दब गया और बुरी तरह रोने लगा। तभी से उसका नाम रावण पड़ गया। तब दयावश उन्होंने अंगूठा ढीला कर दिया और रावण पर्वत के नीचे से निकलकर निरभिमान हो मुनिराज की स्तुति करने लगा । महामुनि वाली घोर तपस्या करके कैलाश से मुक्त हुए ।
इस घटना से यह निष्कर्ष निकलता है कि उस काल तक भरत द्वारा निर्मित जिन-मन्दिर विद्यमान थे। किन्तु पंचम काल में ये नष्ट हो गये, इस प्रकार की निश्चित सूचना भविष्यवाणी के रूप में होती 蒽
कैलास पर्वते सन्ति भवनानि जिनेशिनां । चतुर्विंशति संख्याति कृतानि मणिकाञ्चनैः ॥ सुरासुरनराधीशैवंन्दितानि दिवानिशम् । यास्यन्ति दुःषम काले नाशं तस्कारादिभिः ॥
- हरिषेण बृहत्कथा, कोष १९९
अर्थात् कैलाश पर्वत पर मणिरत्नों के बने हुए तीर्थंकरों के चौबीस भवन हैं। सुर, असुर और राजा लोग उनकी दिनरात वन्दना करते रहते हैं। दुःषम (पंचम) काल में तस्कार आदि के द्वारा वे नष्ट हो जायेंगे।
जैन पुराण-ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि चतुर्थ काल में कैलाश यात्रा का बहुत रिवाज था । विद्या विमानों द्वारा कैलाश की यात्रा को जाते रहते थे। अंजना और पवनंजय का विवाह सम्बन्ध कैलाश की यात्रा के समय ही हुआ था । पवनंजय के पिता राजा प्रह्लाद और अंजना के पिता राजा महेन्द्र दोनों ही
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