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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth कीर्तन करने, उनकी अन्न वस्त्रादि से पूजा करने से दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य सम्बन्धी गुणों की शुद्धि होती है।।३३०।। जन्मकल्याणक स्थान, जन्माभिषेक स्थान, दीक्षा स्थान, श्रमणावस्था की विहार भूमि, केवल ज्ञानोत्पत्ति का स्थान, और निर्वाण कल्याणक भूमि को तथा देवलोक असुरादि के भवन, मेरु पर्वत, नन्दीश्वर के चैत्यों और व्यन्तरदेवों के भूमिस्थ नगरों में रही हुई जिनप्रतिमाओं की तथा (१) अष्टापद, (२) उज्जयंत, (३) गजाग्रपद, (४) धर्मचक्र, (५) अहिच्छत्रस्थित पार्श्वनाथ, (६) रथावर्त - पदतीर्थ, (७) चमरोत्पात आदि नामों से प्रसिद्ध जैनतीर्थों में स्थित जिनप्रतिमाओं को मैं वन्दन करता हूँ। नियुक्तिकार भगवान् भद्रबाहु स्वामी ने तीर्थंकर भगवन्तों के जन्म, दीक्षा, विहार, ज्ञानोत्पत्ति, निर्वाण आदि के स्थानों को तीर्थ स्वरूप मानकर वहाँ रहे हए जिनचैत्यों को वंदन किया है। यही नहीं, परन्तु राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, स्थानांग भगवती आदि सूत्रों में वर्णित देव स्थित, असुर-भवन स्थित, मेरुपर्वत स्थित, नन्दीश्वर द्वीप स्थित, और व्यन्तर देवों के भूमि-गर्भ स्थित नगरों में रहे हए चैत्यों की शाश्वत जिनप्रतिमाओं को भी वन्दन किया है। नियुक्ति की गाथा ३३२ वीं में नियुक्तिकार से तत्कालीन भारतवर्ष में प्रसिद्धि पाये हुए सात अशाश्वत जैन-तीर्थों को वन्दन किया है, जिनमें एक छोड़कर शेष सभी प्राचीन तीर्थ विच्छिन्न हो चुके हैं। फिर भी शास्त्रों तथा भ्रमण वृत्तान्तों में इनका जो वर्णन मिलता है, उनके आधार पर इनका यहाँ संक्षेप में निरूपण किया जायेगा। * अष्टापद : अष्टापद पर्वत ऋषभदेवकालीन अयोध्या से उत्तर की दिशा में अवस्थित था। भगवान् ऋषभदेव जब कभी अयोध्या की तरफ पधारते तब अष्टापद पर्वत पर ठहरते थे, और अयोध्यावासी राजा-प्रजा उनकी धर्म-सभा में दर्शन वन्दनार्थ तथा धर्म श्रवणार्थ जाते थे। परन्तु वर्तमानकालीन अयोध्या के उत्तर दिशा भाग में ऐसा कोई पर्वत दृष्टिगोचर नहीं होता जिसे अष्टापद माना जा सके। इसके कारण अनेक ज्ञात होते हैं। पहला तो यह है कि उत्तरदिग विभाग में भारत से लगी हुई पर्वत श्रेणियाँ उस समय में इतनी ठण्डी और हिमाच्छादित नहीं थीं, जितनी आज हैं। दूसरा कारण यह है कि अष्टापद पर्वत के शिखर पर भगवान् ऋषभदेव और उनके गणधर तथा अन्य शिष्यों का निर्वाण होने के बाद देवताओं ने तीन स्तूप और भरत चक्रवर्ती ने सिंहनिषद्या नामक जिनचैत्य बनवाकर उसमें चौवीस तीर्थंकरों की वर्ण-मानोपेत प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवा कर चैत्य के द्वारों पर लोहमय यान्त्रिक द्वारपाल स्थापित किये थे। इतना ही नहीं, परन्तु पर्वत को चारों ओर से छिलवाकर सामान्य भूमिगोचर मनुष्यों के लिये शिखर पर पहुँचना अशक्य बनवा दिया था। उसकी ऊँचाई के आठ भाग कर क्रमशः आठ मेखलाएँ बनवाई थीं, इसी कारण से पर्वत का अष्टापद यह नाम प्रचलित हुआ था। भगवान् ऋषभदेव के इस निर्वाण स्थान के दुर्गम बन जाने के बाद देव, विद्याधर, विद्याचारण, लब्धिधारी मुनि और जंघाचारण मुनियों के सिवाय अन्य कोई भी दर्शनार्थी अष्टापद पर नहीं जा सकता था; और इसी कारण से भगवान् महावीर स्वामी ने अपनी धर्म सभा में यह सूचन किया था कि जो मनुष्य अपनी आत्मशक्ति से अष्टापद पर्वत पर पहुँचता है वह इसी भव में संसार से मुक्त होता है। -35 139 Prachin Jain Tirth
SR No.009856
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages72
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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