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॥ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म ।।
हीरालाल दुग्गड
प्रास्ताविक:
मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म - हीरालाल दुग्गड द्वारा लिखित यह पुस्तक सात अध्यायों में विभाजित है। जिसमें जैनधर्म की प्राचीनता जैन, साहित्य, जैन धर्म के प्रमुख संप्रदाय और पंजाब में उस समय जैन धर्म की परिस्थिति का विस्तृत वर्णन मिलता है।
ग्रन्थ का प्रथम अध्याय-जैन धर्म की प्राचीनता और लोकमत है। उसमें कैलाश पर्वत को ही अष्टापद मानकर उसका वर्णन किया गया है। जिसका अंश यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
इस अंश में ऋषभदेव और शिव एक ही हैं। यह बात विभिन्न दृष्टि पूर्वक समझाने का प्रयन्त किया गया है। उसमें से अष्टापद के साथ संबन्धित अंश यहाँ प्रस्तुत किये हैं।
(१) कैलाश - अष्टापद पर्वत
श्री ऋषभदेव ने कैलाश (अष्टापद) पर्वत पर जाकर अनशनपूर्वक निर्वाण (शिवपद) प्राप्त किया था। शिव का धाम तथा तपस्या स्थान भी कैलाश माना जाता है ।
(२) नासाग्रदृष्टि - शिव को भी नासाग्रदृष्टि है । योगीश्वर ऋषभदेव ध्यानावस्था में सदा नासाग्रदृष्टि रखते थे ।
(३) पद्मासनासीन- श्री ऋषभदेव ने कैलाश (अष्टापद) पर्वत पर पद्मासन से ध्यानारूढ़ होकर शुक्लध्यान से मोक्ष प्राप्त किया । शिव भी पद्मासन में बैठे हुए दिखलाई पड़ते हैं ।
(४) शिवरात्रि - श्री ऋषभदेव ने माघ कृष्णा त्रयोदशी की रात्रि को कैलाश (अष्टापद) पर्वत पर निर्वाण (मोक्ष) पद प्राप्त किया था । कैलाश पर्वत तिब्बत की पहाड़ियों पर स्थित है । लिंगपूजा का शब्द तिब्बत से ही प्रारम्भ हुआ है । तिब्बती भाषा में लिंग का अर्थ इन्द्र द्वारा स्थापित तीर्थ अथवा क्षेत्र है । अतः लिंगपूजा का पर्व तिब्बती भाषा में तीर्थ या क्षेत्र पूजा है । जैनागमों के अनुसार श्री ऋषभदेव के कैलाश पर्वत पर निर्वाण होने से नरेन्द्र (चक्रवर्ती भरत) तथा देवेन्द्रों द्वारा यहाँ आकर उनके पार्थिव शरीर का दाह संस्कार किया था, और उनकी चिता स्थानों पर देवेन्द्रों ने तीन स्तूपों का निर्माण
१. जैनाचार्य जिनप्रभसरि ने अपने विविध तीर्थकल्प में कई जैन तीर्थों का लिंग के नाम से उल्लेख किया है। यथा सिंहपुरे पाताललिंगाभिधः
श्री नेमिनाथः । अर्थात् पंजाब में सिंहपुर में पाताल लिंग (इन्द्र द्वारा निर्मित तीर्थक्षेत्र) नाम का नेमिनाथ का महातीर्थ है।
(विविध तीर्थकल्प पृ. ८६ चतुरशिति महातीर्थनाम कल्प।) २. It may be mentioned that linga is Tibetian word of Land.
Ashtapad Parvat Vol. II Ch. 9-B,
Pg. 434-437
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Jainism in Central Asia