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Shri Ashtapad Maha Tirth
पुराणसार संग्रह : पञ्चम सर्ग (गाथार्थ)
कर्ममलरहित जिनेन्द्र आदिनाथ भगवान् भी प्रजा के लिए हितकारी धर्म का उपदेश करते हुए तथा बहुतसे भव्यों को तारते हुए पृथ्वि पर विहार करने लगे ।।१।। उनके समवशरण में ८४ गण थे तथा चौरासी ही गणधर थे और उतने ही हजार मोक्ष चाहनेवाले मुनि थे। आर्यिका भी तीन लाख पचास हजार थीं। और श्रावक तीन लाख प्रमाण थे। श्राविकाओं की संख्या पाँच लाख थी। भगवान् का बीस लाख पूर्व वर्ष कुमार काल में, तिरेसठ लाख पूर्व वर्ष राज्य-काल में तथा एक लाख पूर्व वर्ष संयम काल में बीता ।।२-५।।
कहा भी है-सत्तर लाख छप्पन हजार कोड़ाकोडि वर्ष प्रमाण पूर्व होता है ।।६।।
उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में तथा अभिजित् योग में सात मांगल्य युक्त भगवान् के निर्वाण पद की पूजा की गई ।।७।।
कहा भी है- (१) स्वर्गावतरण, (२) जन्म कल्याणक, (३) विवाह, (४) राज्याभिषेक, (५) दीक्षा कल्याणक, (६) केवलज्ञान कल्याणक और (७) निर्वाण कल्याणक ये सात भगवान् ऋषभदेव के माङ्गल्य हैं ।।८।।
देवेन्द्रों के द्वारा नाना प्रकार से पूजित वे भगवान् चार प्रकार के संघ सहित कैलाश पर्वत पर आरूढ़ हुए ।।९।। वहाँ दश हजार साधुओं के साथ उन्होंने समाधि लगाई। तथा चौदह दिनों के बाद चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त हुए ।।१०।। उन्होंने प्रातःकाल ही शेष कर्मों का अन्त कर लोक को कंपाते हुए, अव्याबाध सुखवाले कल्याणकारी मोक्ष पद को पाया ।।११।।
तब अपनी देवियों सहित बत्तीस इन्द्रों ने परिवार सहित आकर बड़े ठाट-बाट से भगवान् का निर्वाण कल्याणक किया ।।१२।। कहा भी है- भवनवासी देवों के दस इन्द्र, कल्पवासी देवों के बारह इन्द्र, व्यन्तर देवों के आठ इन्द्र तथा ज्योतिषियों के दो इन्द्र, इस प्रकार मिलकर बत्तीस इन्द्र होते हैं ।।१३।। चक्रवर्ती को अपने पुरोहित द्वारा स्वप्न के फलस्वरूप भगवान् के निर्वाण की सूचना मिली जिससे सैन्यसहित शीघ्र आकर उन्होंने निर्वाण कल्याणक की पूजा की ।।१४।।
तब अग्निकुमार देवों के इन्द्र के मुकुट में लगे हुए चूडामणि रत्न की अग्नि से, सुगन्धित जल, पुष्प और अक्षतों से सिञ्चित उनकी देह का दाह संस्कार किया ।।१५।।
वृषभसेन आदि गणधरों की अग्नि को दक्षिण भाग में तथा अन्य मुनियों कि अग्नि को वाम भाग में स्थापित कर गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि तथा आह्वनीय अग्नि की उन लोगों ने पूजा की ।।१६।।
इसके बाद इन्द्रों ने चक्रवर्ती भरत को हाथ फैलाकर आश्वासन दिया तथा मधुरालाप कर गणधरों
को उन्हें सौंप दिया ।।१७।। Puran Sarsangrah
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